Tuesday, November 4, 2008

जाओ रंग


रहने दो रंग
मैं तो जानती हूँ
दरअसल सब कुछ
श्वेत- श्याम ही है
दरअसल सब कुछ श्वेत - श्याम ही रहना है
इन आकृतियों को तुम
नीला रंगों या भूरा
दरअसल हम सब
सफ़ेद कागज़ पर
काले पेन के स्केत्च ही हैं
जाओ रंग
काली लकीरों के भीतर हम सब को
कोरा ही रहना है
रहने दो रंग
मैं तो जानती हूँ
रंग भरना
रंगहीन होना

और सोचो तो

ये काला रंग भी तो

मिथ्या ही है

तो क्या आखिरी पेंटिंग है

खाली कैनवास

शीर्षक "हम"

Sunday, November 2, 2008


मान्विये संबंधो में
कोई बात क्यूँ हो जाती है
तुमने छुआ है कभी
चिडिया के पंखो को ..
ये मान्विये संबंधो से
क्यूँ लगते हैं ?
मिलन का उल्लास
और बिछड़ने पर दुःख
बिछड़ने पर सदा
दुःख ही क्यों होता है ?
सुनो
कनेर के उस फूल को देख रहे हो ॥
पीला सा फूल
टप से जमीन पर गिरा
लेकिन कोई रुदन नही
हवा /वैसे ही बह रही है
फिर मान्विये संबंधो में ही कोई बात क्यूँ हो जाती है ??
मिलन पर उल्लास
बिछड़ने पर दुःख
बिछड़ने पर सदा दुःख ही क्यों होता है ??

(जाने सवाल है या कविता )