Wednesday, February 4, 2009

बस एक कप और !!......


लेख शर्तिया गर्म कर देगा आपका दिल।लिखने की सारी जरूरी चीजे मेरे पास मौजूद हैं,दिल में गर्माहट है ,दिमाग में गुनगुनाहट ,और गिलास में भरी है चाय ! चा ...की चाशनी से मुस्कराहट भरी की नही ?
सुबह ,सुहानी सुबह कब होती है? जब आँख खुलने से पहले दिल और आँख को इत्मीनान हो की सपना पूरा हो चुका है,हमदम जाग चुका है (जिनके हमदम है ),अखबार आगया है ,और बिस्तर के पास वाली मेज़ पर है चाय ,और चाय में गर्मी भी बाकी है ....वाह...ताजगी का मज़ा आया न !गर्म चाय उतनी ही खुशनुमा होती है जितना हमारा दिल खुशी के वक्त गर्म होता है ।
ताजगी और जागने का जितना सम्बन्ध है चाय से उससे ज्यादा नींद और सुलाने से है । क्यूंकि सपने नींद में ही आते हैं और सपने जगाने का काम चाय बखूबी करती है । खीज भरा मूड हो तो भी चाय का प्याला हाथ में आते ही सपने करवट लेने लगते हैं ....सजने लगते हैं ...उनके पूरे होने के प्लान भी बन्नने लगते हैं ।
चाय का गिलास हाथ में आते ही गर्म हो जाती हैं उंगलिया और घूँट अन्दर जाते ही दिल भी गर्म हो जाता है । दिल गर्म होता है तो पिघल पिघल कर बहती है गर्माहट शरीर और मन में और उबाल मार कर उबल उबल कर दिल के कोने कोने से बहार आती हैं बातें । दिल की बातें तो फिर भी दबी होती हैं चाय के बिना तो होठ पर रखी कहानी तक बहार आने से मन कर दे । गुनगुनी चाय ,गुनगुना साथ ,गुनगुनी बात ,गुनगुनी मुस्कान ...गर्म चाय गर्म हँसी ...जितनी दिलो में गर्माहट उतने बढ़ते प्याले...चाहे तो गिन लीजियेगा । दोस्ती बढ़ने के साथ बढती है प्यालो की गिनती ..दूरी कम होती है तो चाय ज्यादा ।
ढेर सारी शामे ,ढेर सारी सुबहे ,देर तक पकी चाय और पकता प्यार ,गहरा होता चाय का रंग और गहराती दोस्ती ।
मैंने ढेर सारा वक्त घुमते हुए बिताया ,कुछ ऐसी जगह गई जन्हा बिजली नही थी ,फ़ोन नही था पर २ चीजे हर जगह थी एक चाय की थडिया दूसरा पार्ले जी । मुझे लगता है अगर आप सचमुच शहर की नब्ज जानना चहते हैं तो वंहा की थडियों पे जाए। न म्यूज़ियम ,न पुराने पड़ते महल,न मन्दिर न बाजार आपको शहर के दिल के बारे में बता सकते हैं लेकिन चाय की थडी पर सुबह ,दोपहर , श्याम और रात जाए और आपको पता चल जाएगा शहर की धड़कन का हाल क्या है । चाय रंग बदलती है ...महक बदलती है ...स्वाद बदलती है ...अंदाज़ बदलती है ...प्याला बदलती है ...और अनजान को जान-पहचान में बदलती है ,जान-पहचान को दोस्ती में ,दोस्ती को प्यार में और जब प्यार भी होगया तो और क्या... बच्चे की जान लोगे अब ?
चाय को चाय न कहते बहाना कहते हम । बाहाना मिलने का ,बहाना साथ का ,बहाना कुछ देर और बात का ...चाय पकडाने के बहाने उंगलियों का टकराना..चाय ..प्यार के पहले स्पर्श का बहाना ।
चाय पहली बार में अक्सर जुबां जला देती है जो हमेशा याद रहता है पहले चुम्बन की तरह ।
पहला कप-चाय से पहली मुलाकात हुई दादी के साथ ..चाय के २ समय होते हैं ,सुबह ७ बजे और श्याम ४ बजे । लेकिन बच्चे खासकर लड़कियों को चाय नही पीनी चाहिए रंग कला हो जाता है । लेकिन शाम की चाय पे हमेशा मई उनके साथ रही । रंग की चिंता नही वो पहले से ज्यादा पत्ति वाली गाढे दूध की चाय जैसा है।

दूसरा कप-दूसरी मुलाकात पापा माँ के साथ ...एक तो वो दिवारी अखबार निकला करते थे जिन्हें चाय की थदियो पर चिपकाने भाई और मैं सुबह सुबह जाते थे,फिर माँ पापा के साथ वंहा बात करने .फिर हमारे घर में सन्डे को इतनी चाय बनती थी की लगता था हम चाय वाले ही हैं । बाकायेदा एक बन्दे को चाय की जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी । हमेशा मुझे ।
तीसरा कप - यात्राओं के दौरान ...ट्रेन में चाय ...ऊपर की बर्थ पर किताब मैं और चाय ..चाय पर चाय ..आवाज़ दे कर रोकना और ट्रेन के हिलते हिलते सँभालते हुए चाय ।
चौथा कप-स्कूल ऑफ़ फाइन आर्ट्स में चाय !जितनी गर्मी चाय में उतने गर्मी रंगों में। प्रैक्टिकल यानी मूर्ति व चित्र बनाने के हमे ५ घंटे मिलते थे । एजिल पर कैनवास होता याँ मूर्ती याँ कभी मिटटी या रंगों का ढेर पर लगातार एक कप ज़रूर होता था चाय का...जैसे इजिल पर रखी चाय की भाप से ही चित्र बन्ने हो ,मिटटी उशी भाप में पिघल कर हाथो से मुडती थी । सपने ऐसे ही चाय की भाप में पिघल कर उबलते हैं और मुँह से छिटक कर बाहर आते हैं।

कप ५-नाटक मंडली और चाय ...चाय की दूकान के सामने बडा सा बरगद का पेड़ था जिससे बचते हुए कुछ एक किरने रौशनी की अन्दर आही जाती थी और दूकान में अंधेरे से लड़ने को था ४० वॉट का बल्ब और थे हम ...पूरी दुनिया से बोर,थके हुए ..नाराज़ ...वंहा लंच की जगह चाय ही और जितनी दिल की बेहाली, बाहाली को उतनी ही चाय । इस दोरान हमने २ नये शब्द भी इजाद किए -१ च्यास ...प्यास पानी की और च्यास चाय की ...२ चाय्ची ,अफीमची सा चाय्ची ।
घर से ४ कदम दूर भी चाय ..तो माँ ने कहा यार घर आकर ही पी लिया करो और ३ रुपये हमे दे दिया करो ।
छठा कप - अब मैं जयपुर से दिल्ली में थी तो दिल के साथ चाय भी यंही चली आई ..यंहा एक दम अलग मंज़र है । चाय की ढेरो थडिया हैं अड्डे हैं । आप चाहे एक लाख रु महीना कमाए याँ एक हज़ार ..एक साथ चाय पीजिये । एक साथ कहानी ,फ़िल्म ,फैक्ट्री, कॉल सेण्टर ,घर ,रिक्शे की बातें होंगी,आपको अपने यंहा के भी लोग ज़रूर मिलेंगे । सोहार्द है पक्का । ज्यादा दूध या ज्यादा पानी सब एक साथ है यंहा ।
बात और प्यार में रुठाई तो होती ही है ...चाय से भी एक बार मैं तीन दिन बोली । हुआ यूँ की घर भरा था दोस्तों से ,रसोई भी लबालब थी बातो से और बडा भगोना भरा था चाय से ... कप चाय से । और ढालते वक्त वो चाय मेरे प्रेम में ऐसी पागल हुई की कप की जगह मेरे पैरो में गिर पड़ी ..सारी की सारी!तब तीन दिन तक चाय पीना क्या चाय का नाम सुन कर भी मैं डर कर वापस सो जाती थी ।
फिर एक बात ...एक जापानी घुम्मकर से मिली एक बार उनके गले में कैमरा था और पीठ पर बैग ,पीठ के बैग में थी किताबे और उनकी पसंद के टी बैगस। (अब हमारी चाय पीना सब के बस में कंहा???होठ चिपक जाते हैं)मुझे उन्होंने एक किताब और कुछ टी बैग दिए ...किताब के दोरान साथ में चाय !
चांदी सी केतली से ढलती है चाय, रिश्तो से कांच के प्यालो में चाय । प्यार सी गर्माहट सी चाय । चाय की ढेरो थदियाँ बनी हैं ताजमहल ......जन्हा प्रेमी अपने प्रेम को याद करते भरते हैं घूँट चाय के ,जन्हा प्रेम अपने प्रेम के साथ पीते हैं चाय एक के बाद एक स्पेशल चाय । ये ताजमहल उस ताजमहल से जरा भी छोटे नहीं ।
एक कप और .....अभी ढेर कप बाकी हैं मेरी चाय के ,फिलहाल दोस्त के गर्म हाथो सा चाय का लबालब भरा गर्म प्याला और उसको पिलाने वाला चाय्ची मेरा इंतज़ार कर रहा है ...............

Saturday, January 24, 2009

भरे आदमी को भरी बोतल से भरा जाम

मुबारक हो मंटो मर गया ....आप हम सुरक्षित हैं ,मजे मारे !वो होता तो आपके साथ मज़े जरूर मारता और आपको ठीक उस वक्त पकड़ लेता जब आप सब को अलविदा कह अपने हमाम में घुस सरे खिड़की दरवाजे रोशनदान बंद कर अपने कपड़े उतर चुके होते ।न नाराज़ न हों आप में छिपे शैतान ही की बात नही कर रही , साफ़ कपडों में छिपे मैलही को नहीं ,मैल से ढके श्वेत को भी वह पहचानता था । जैसे इसर सिंग जैसा बलात्कारी खुनी जैसे ही इंसान बना उसने उसे पकड़ लिया ।

लेकिन फिर भी ध्यान से रहियेगा,निश्चिन्ता की ठंडी साँस आप अब भी नही लेसेकते क्यूंकि जो मरा वह दरअसल सआदत हसन है मंटो नही। बस बातें काफ़ी हैं ये साबित करने को ।

बात एक - जो घर की सफाई करता है ,गप्पे मारता है ,घूमता है,खाना खता है आदि आदि ...वह सआदत हसन है क्यूंकि जब मेरीमें कलम नही होती मैं सिर्फ़ सआदत हसन रहता hun ,हाथ में कलम आते ही मंटो बन जाता हूँ ।

तो जनाब जब मरे हाथ में कलम नही थी ,बिस्तर पर थे। तो मरने वाला मंटो नहीं था । फिर मंटो होता तो आखिरी शराब जो मुंह से लुड़क गई कभी न लुड़क ने देता बल्कि आखरी बूंद तक को घूंट भर के पीता ।

बात दो- यंहा सआदत हसन मंटो दफ़न है ,उसके सीने में फने अफ्सनानिगारी के के सारे असरार और रमोज़ दफ़न हैं । वह अब भी सोच रहा है की वह ज्यादा बड़ा अफसानानिगार है या खुदा ?

तो सआदत हसन मंटो सोच रहा है याने जाग रहा है और जाग रहा है माने देख रहा है । मंटो कब तक जगे रहोगे ?आँखों को कुछ आराम दो ।

लिखते हुए लगता है अभी कब्र से निकल आओगे और पूछोगे "तुम होती कौन हो मेरे बारे में लिखने वाली?दस्तावेज़ पढ़ लेने से मंटो के बारे में कहने का हक तुम्हे नही मिल जाता ।

"एक बार बीच बाज़ार में मंटो के एक कर्ज़दान ने उन्हें पकड़ लिया ।

-हतक तुमने लिखी है ?

-हाँ !लिखी है तो?

-जाओ तुम्हारा क़र्ज़ माफ़ किया ।

-हुह! तुम क्या सोचते हो मुझ पर तुम्हारा पैसा उधर है तो तुम्हे मेरी कहानी को अच बुरा कहने का हक़ मिल जाएगा ?मई जनता हूँ मेरी कहानी कैसी है ,क़र्ज़ मैं उतार दूंगा ।

इसलिए ही मंटो पर चले मुकदमे उसके दिल पर कोई कालिख नही लगा पाये और साहित्य का सबसे बडा पुरूस्कार भी मिल जाता तो कहते ,"ये कौन होते हैं मेरी कहानियो की समीक्षा करने वाले ?मई जनता हूँ मेरी कहानिया कैसी हैं "।

ख़ुद पर ,बस ख़ुद पर विशवास था मंटो को । अपने बारे में अच्छा बुरा कहने का हक उसने किसी को नही दिया । वह ख़ुद ही अपने बारे में फ़ैसला करता और जनता था ।

अल इंडिया रेडियो में १०० नाटक पूरे हो चुके थे । मंटो से एक नाटक में कुछ शब्द बदलने को कहा गया । "ये नाटक मंटो का लिखा है ,इसमे मैं कुछ नही बदल सकता ,ये ठीक ऐसा का ऐसा रहेगा ,आपको ऐसे नहीं पसंद तो किसी और से लिखवाइए। "और नोकरी को लेखक ने अपने कलर से झाड़ दिया । वो लेखक के आलावा भी था ,३ बच्चियों का पिता था लेकिन उसकी पहली इमानदारी अपने आप से थी ,मंटो से थी ।

उसके पात्र भी ऐसे ही थे ,जिद्दी,गंवार ,व्यभिचारी,बदनाम लेकिन जूठे नही थे और बनावटी नकली तो बिल्कुल नहीं । वे असली लोग थे जिनके सीनों में दिल ऐसे धड़कता है की आवाज़ बाहर तक आती हैं। वह उस वर्ग का लेखक नहीं था जिनके नीचे गटर और ऊपर धुआ रहता है ,जो बिच में चलते हैं और मोका देख कर या हवा के रुख से रुख बदल लेते हैं । वह निर्भीक लोगो का लेखक था। वो कहता है मुझे पतिव्रता स्त्रियाँ नहीं जमती ,मुझे तो वो औरत लगती है जिसे प्रेम पति के आलिंगन से निकाल कर प्रेमी की बाहों में बिठा देता है । जन्हा दिल घड़ी की तरह टिक टिक नहीं करता बल्कि आग के गोले की तरह तपकर चटखता है । उसके लिखने में यह नही था की ये लिख सकते हैं वह नहीं ..वह तो जैसा देखता वैसा ही लिखता । अच्छे बुरे का ख्याल कर के नही लिखता .कहता "संस्कृति समाज कोक्या उतारूंगा, हजार लोग मिल कर भी एक नंगे आदमी को और नंगा नहीं कर सकते । हाँ मई उसे कपड़े भी नही पहनता क्यूंकि कपड़े पहनाने का काम दरजी का है मेरा नहीं । मेरी कहानिया आप बर्दाश्त नही कर पाये तो समझिये आपकी दुनिया नाकाबिले बर्दाश्त हैं ।

आप ख सकते हैं की वैश्याओं और दलालों के बारे में लिखने पढने की जरूरत ही क्या है ?जी दरअसल मंटो आदमी था और आदमियों के बारे ही में लिखना पसंद करता था कठपुतलियों के बारे में नहीं। आपके पेट भरे हुए हैं फिर भी आप पेट भरने के लिए आत्मा और मन का सौदा करते हैं ,मंटो को वो लोग पसंद थे जो पेट भरने के लिए देह का सौदा कर लेते थे और आत्मा साफ़ रहने देते थे । देह शुचिता ,देह की साफ़ सफाई की बातें वो लोग करते हैं जिनके पास लम्बी चौडी देह है ,मंटो ने जिनके बारे में लिखा उनके लिए तो देह को जीवित रखना बेडा सवाल था ।

कुछ साहब कहते हैं मंटो ने गलती की पाकिस्तान चला गया । लेकिन फर्क क्या है??उसने दोनों जगह कहानियाँ लिखी ,दोनों जगह उस पर मुक़दमे चले ,दोनों जगह उसके पास रहने को जगह नहीं थी । हाँ हिंदुस्तान में उसके मित्र श्याम ने उससे एक बार कहा की दंगो के वक्त मैं तुम्हे शायद मार भी सकता था.(श्याम की मौत की ख़बर सुन कर मंटो पागल हो गया था ।),मित्र अशोक कुमार को उनकी कहानिया पसंद अणि बंद हो गई थी और इस्मत ने कहा ,"मंटो पाकिस्तान में मकान पाजाने की आशा में हैं । वो मंटो था ...महफ़िल से चुपचाप चला आया । हाँ ठीक है की ६ फीट ज़मीन तो पा ही ली उसने ,जीके न सही मर के सही ।

और मंटो ने खूब लिखा जितना जिया उतना लिखा ,हर हाल में लिखा ......कहता था,"कहानी न लिखू तो लगता है जैसे शोच न्ही गया ,खाना नहीं खाया , शराब नहीं पी ,साँस नहीं ली ।

आतिश पारे पहली कहानी से शुरू किया था और अन्तिम कहानी कबूतर और कबूतरी लिख कर ........सोच रहा है की खुदा ज़्यादा बेडा अफसानानिगार है की मंटो ?