Thursday, October 21, 2010

अपने-अपने हिस्से का सच : रोशोमन


भास्कर की पत्रिका अहा ज़िन्दगी में चल रहे अपने कॉलम ग्लोबल चलचित्र से

क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ, किसी मुद्दे पर आप सच कह रहे हों, सामने वाला भी और दोनों बातें सिरे से अलग हों? सच निरपेक्ष नहीं है, कोई शाश्वत सत्य नहीं होता, सब का अपना-अपना जीवन, अपनी परिस्थितियां हैं, अपने विश्वास, मान्यताएं और हर एक का अपना सच भी। महान जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसोवा ने इसी बात की डोर पकड़ एक ख़ूबसूरत फ़िल्म बुन दी--रोशोमन, जिसने पूरी दुनिया में चमत्कारिक सराहना के परचम ही नहीं लहलहाए, अपनी फ़िल्मों पर अकड़े पश्चिम ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तबाह जापान की संस्कृति को गर्दन झुका के, घुमा के गौर से देखा। समुराई पृष्ठभूमि के अकिरा कुरोसोवा का फ़िल्मों में प्रवेश आकस्मिक ही था। वे तो चित्रकार बनना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों ने पहले जीने की जद्दोजहद का इंतज़ाम करने की मांग की और वे 1936 में फ़िल्मों के सहायक निर्देशक हो गए।
1943 में उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म आई--जुडो सागा, फिर कई श्रेणियों की फ़िल्में बनाने के बाद रोशोमन, जो अकेले ही कुरोसावा को विश्व के महान निर्देशकों की पहली पंक्ति में बिठाने के लिए काफी थी। इसके बाद सेवेन समुराई, इकिरू, माद्योदा जैसी कितनी ही फ़िल्में दुनिया के सामने मील का पत्थर बनकर आईं। 1950 में रजत पट पर आई रोशोमन। जापानी लोककथा-लोक नाट्य शैली की सुगंध लिए यह पहली फ़िल्म थी, जिसने दुनिया को जापान की संस्कृति और कला के बारे में चेताया। यूं तो, रोशोमन एक मर्डर मिस्ट्री कही जा सकती है, लेकिन वह तो बस कहानी का गुंथाव है, जिसके सहारे जीवन के कई दार्शनिक सवालों की गुत्थी तक फ़िल्म पहुंची।
एक दोपहर कब्र पर एकत्र लकड़हारा, पादरी और एक व्यक्ति किसी सत्य घटना की किस्सागोई करते हैं। न जाने कितनी कहानियाँ जंगल के सुनसान राहों पर भटकती बनती हैं जंगल और कहानी का रिश्ता पुराना है इस किस्से में भी ...जंगली रास्तों से गुजरते एक समुराई दम्पति हैं और डाकू भी । नव दंपति को रास्ते में डाकू लूट लेते हैं। समुराई का क़त्ल किया जाता है और पत्नी का बलात्कार। जिस तलवार से समुराई का कत्ल हुआ है, वह गायब। अदालत में घटना के चार गवाह हैं--डाकू, विवाहिता, समुराई की आत्मा और घटनास्थल पर मौजूद एक लकड़हारा।
डाकू के हिसाब से समुराई को उसने द्वंद्वयुद्ध में हराकर मारा और जाने वो कीमती तलवार वहां कैसे छूट गई, विवाहिता के हिसाब से उसने बलत्कृत होने के बाद शर्मसार हो खुद को उस तलवार से मारना चाहा, लेकिन तलवार हाथ में लिए-लिए ही वो बेहोश हो गई और जब जगी, तब समुराई मृत था और तलवार जाने कहां! समुराई एक माध्यम से अपना बयान देता है कि बलत्कृत होने के बाद डाकू के साथ चलने की प्रस्तुति पर उसकी पत्नी ने कहा कि वो डाकू के साथ चलने को तैयार है, यदि वो समुराई का कत्ल कर दे। यह सब सुन समुराई ने खुद ही अपनी तलवार से खुद को मार डाला पर उसे यह नहीं पता कि उसके मरने के बाद तलवार किसने उठाई। अब लकड़हारा अदालत को बताता है कि समुराई की कहानी झूठी है। दरअसल, डाकू ने स्त्री से विवाह की भीख मांगी, जिसके लिए स्त्री राज़ी नहीं थी। तय हुआ कि दोनों मर्द स्त्री का प्यार जीतने के लिए द्वंद्व करें, लेकिन समुराई स्त्री की खातिर लड़ना चाहता ही नहीं था, फिर भी वे लड़े। लड़ाई के दौरान पत्नी बेहोश हो गई। डाकू की जीत हुई, लेकिन स्त्री भाग गई और वह विजित तलवार लेकर चला गया। अंत में पता चलता है कि तलवार की चोरी लकड़हारे ने की थी और सभी अपने-अपने बचाव, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के कारण अपने मतलब से गढ़ी हुई कहानियां सुना रहे थे।26 दिसंबर, 1951 को रिलीज़ इस फिल्म ने सात अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते, जिसमें से एक सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म के लिए मिला ऑस्कर भी शामिल है।
मैं एक सच की बात कहूं? सच! ये फ़िल्म सच्ची क्लासिक है, जो हर जीवन की गुत्थी में जवाब बन कर शामिल है।

Wednesday, October 13, 2010

वह किरदार मुझमें बस्ता है ...


आहा जिंदगी के सितम्बर अंक में मेरा लेख

सर्दी लग रही है...बहुत, मैंने सोचा भी नहीं था कि अपने देश में इतनी
सर्दी होगी। आदत नहीं रह गई है ना! दोस्तोव्यस्की की बौड़म के प्रिंस से
मेरी पहली मुलाकात ट्रेन में हुई। ठीक वैसे ही, जैसे पंद्रह साल की किसी
लड़की से नायक की मुलाकात होनी भी चाहिए। नवंबर के अंत में सवेरे जब
रोशनी नमी और कोहरे में डूबी हो, कुछ गज की दूरी पर भी किसी को पहचानना
मुश्किल हो, रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे के डिब्बे की खिड़की से चेहरा सटाए
26-27 साल का घने सुनहरे बालों, छोटी-सी नुकीली दाढ़ी, धंसे गालों और
बड़ी-बड़ी नीली, बींधती हुई आंखों वाला प्रिंस मिशिकन बैठा था। स्पष्ट था
कि नवंबर की भीगी-भीगी रात का उसे पूरा मज़ा मिल चुका था और उसके तीखे
नाक-नक्श नीले पड़े थे। हाथों में छोटी-सी पोटली झूल रही थी, जो उसका
सर्वस्व थी। मेरा और दोस्तोव्यस्की का ये भोला-भोला नायक ट्रेन के उस
डिब्बे में खास तरह के लोगों से घिरा बैठा था, जो दुनिया के हर बड़े
आदमी और खासकर बड़ी औरतों से कैसे ना कैसे संबंध होने और उनके गुप्त राज़
जानने का दावा करते हैं और बड़ी अजीब मुद्रा में खाज मिटाते हुए हंसते
हैं। हमारा प्रिंस इन लोगों को बड़े आराम से बता रहा था कि वह लगातार
पांच साल से मिर्गी का इलाज करा रहा था और लगभग बौड़म रह चुका था। लगातार
उन लोगों की हंसी के व्यंग्य भरे फव्वारे के बीच हमारा प्रिंस भी अपने
बौड़मपने पर खुद भी मासूमियत से हंस पड़ा।
हां, ये अजीब लग सकता है—खुद पर हंस पड़ना, वो भी तब, जब कई-कई लोग आपको
घेरे आपकी चीराफाड़ी कर रहे हों, लेकिन यही तो मेरा नायक है। मेरा और
दोस्तोव्यस्की का भी। साहित्य में कहते हैं न, `वह महान पात्र आज भी
सामयिक है।‘ मैं कहती हूं—नहीं, वो इस सदी का लड़का नहीं है। हमारे समय
में प्रिंस मिशिकन जैसे लड़के होते ही नही हैं। आपको अपने हर ओर
दोस्तोव्यस्की के उपन्यास बौड़म के पात्र अपनी सारी चारित्रिक विशेषताओं
के साथ मिल जाएंगे, बस—एक प्रिंस मिशिकन नहीं मिलेगा। मैंने बौड़म पढ़ा
और प्रिंस को पसंद करने लगी, तब से हमेशा के लिए। पहली बार में तो मैं
खुद समझ नहीं पाई कि क्यों मैं एक शर्मीले, कुछ-कुछ बचकाने, बेतरतीब और
बीमार प्रिन्स पर इस कदर फ़िदा हो रही हूं, जबकि नायक तो एक मज़बूत
किरदार होता है, जो सफल होता है। पता है जबकि, ये है जो, न जीतता है, न
जीतना चहता है। ये क्यों मुझे लुभा रहा है? तब मैंने दुबारा बौड़म पढ़ी।
प्रिंस मिशिकन को फिर से छूकर गुजरने के लिए।
एक बच्चा है, जिसके कपड़ों का नाप बढ़ गया है और बच्चे-सी ही साफ़, साहसी
नज़र है, जो न केवल लोगों को पहचान सकती है, अपनी साफ़गोई से उन्हें भेद
भी सकती है। कभी वो मुझे एक ऐसा राजकुमार लगता, जो अपनी विनम्रता में
संन्यास लिए है और लोग उसे प्यादा समझे बैठे हैं। कभी लगता—ये क्यों खड़ा
नही होता? इसको कभी भी, कोई भी मुंह पर मसखरा और बौड़म कहकर हंसने लगता
है। एक बेवकूफ सज्जन को धोखा देकर लोग कितने खुश हो जाते हैं। प्रिंस
उनकी हंसी के लिए पात्र बनता है और उसका दया से भरा मन कहता है—`नहीं!
इनके बारे में फैसला करने में इतनी बेरहमी न करूं। ईश्वर जानता है, इन
कमज़ोर और शराबी दिलों में क्या-क्या बसा हुआ है।‘
संशय और असुरक्षा में जीते लोगों को सहने और माफ़ करने की क्षमता है
प्रिंस के साहसी और सच्चे दिल में। उसमें अपनी एक चेतना है, जो किसी के,
कुछ भी कहने से बेचैन हो कर डिगती नहीं है। उसमें रीढ की हड्डी है, लेकिन
आजकल अनिवार्य सी हो गई सेल्फिशनेस और अभिमान नहीं। वह दूसरों की ख़ुशी
के लिए खुद भी, खुद पर हंस सकता है। कितनी बड़ी बात है, न किसी अजनबी के
सामने भी यूं खुद पे हंस पड़ना? मैं अपनी हंसी नहीं उड़ा सकती। मैं तो
नाराज़ हो जाऊंगी। हमारे मन उतने निर्मल थोड़े ही हैं...हमारे दिलो में
तो कई बार दूसरो की हंसी चुभा भी करती है। प्रिंस...जिसे हर आदमी बौड़म
समझता है और धोखा तक देता है। तब हर बार लगता है—उफ़! ऐसे भोले आदमी को
छलते शर्म नहीं आती। लोगों को प्रिंस प्रेम करता है, लेकिन दिल को वस्तु
समझ हक़ नही जताता। प्रेमिका के सुख में उल्लसित और दुःख में व्यथा झेलता
है। किसी की प्रेमिका छोड़ कर चली जाए, तब लोग दिल में नहीं, अहम पर चोट
खाकर तिलमिलाते हैं और प्रिंस प्रेमिका की किसी और से शादी होने पर भी
ख़ुशी में आंखें भिगो सकता है। वह समझ और विश्वास का साथी है, अहंकार का
नहीं। उसकी सबसे ख़ास बात है उसका वो विश्वास कि औरत बेहया हो ही
नहीं सकती और नस्तास्या जब गंभीर निराशा में फंसी, दूसरों की खिल्ली
उड़ा रही है, तब वह नस्तास्या को डांट कर कहता है—"आप को शर्म तो
नहीं आती ? क्या आप ऐसी ही हैं. जैसी आप अपने आप को जता रही
हैं?"
और नस्तास्या विनम्रता से लौट जाती है। ये एक पुकार थी गंभीर
और असली पुकार, जो लोगों को जगा सकती है। बहुत दूर से बुला
सकती है...। ना, यहां औरत को पुरुष से सर्टिफिकेट की दरकार नहीं,
उसके हयादार या बेहया होने के बारे में, लेकिन एक साथी, एक
रिश्ते से औरत विश्वास और समझ की उम्मीद करती है। कितनी बड़ी
बात है कि प्रिंस से पहली मुलाकात में ही वह सबकुछ मिलता है।
भोला-भला प्रिंस, जो दौलत, प्रेम, रोमांस के बीच फंस गया है...एक ऐसे
समाज में, जिसमें तमाम भौतिक चीज़ें और इंसान, एकसाथ रहते हैं। यहां
शक्की और ईर्ष्यालु लोगों का जमघट है, जो हर बुराई को ज्यादा से ज्यादा
बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और प्रिंस इन सब से ठीक उलट, किसी की छोटी सी
अच्छाई पर भी खुश हो उसे इज्ज़त से स्वीकारता है। सोसायटी के मंझे हुए,
व्यवहार कुशल खिलाड़ियों के बीच जब उसे अजूबे की तरह देखा जाता है, उनकी
तमीज और तहजीब में उठने बैठने लायक नहीं।
वहां, वही अकेला, एक मौलिक, एक असली इंसान है, जिसके चेहरे और दिल का
आपसी सम्बन्ध अब तक कायम हैं। इस सोसायटी में प्रिंस की बेदखली देखकर
लगता है—जाने इंसान को गरिमा और शालीनता उसका दिल सिखाता है या नाच
सिखाने वाला मास्टर!
नहीं! वह ऐसा इंसान नहीं है, जो आपको ढेर सारे उत्साह और यौवन से भर दे।
तूफ़ान और ताजगी दे, लेकिन आपको उसका साथ अच्छा लगेगा, क्योंकि उसमें एक
सहज, सुन्दर सकारात्मकता है। शीतलता और प्यार है। प्यार बिना किसी नाटक
और दिखावे के। वह धीरे से आता है और ख़ामोशी से आप में शामिल हो जाता
है...मुस्कुराते हुए...शायद इसलिए ही मैं पहली बार में जान भी नहीं पाई
कि ये मुझे क्यों अच्छा लग रहा है...प्रिंस को देखकर मुझे लगता है, जो
जितना अविकसित होता है, वो उतना ही अधिक इंसान होता है। दुनिया की
दुकानदारी में अपने फायदे के सौदे जो नहीं करता। रिश्तों में ताकत के
गणित नहीं बिठाता। शायद प्रिंस की ये सहजता, ये निर्मलता इस ज़माने में
किसी को नाटकीय लगे, लेकिन मुझे लगता है—बहुत पहले, कभी किसी जमाने में,
शायद हर ओर, हर आदमी ऐसा ही हुआ करता होगा।
दोस्तोव्यस्की बरसों से प्रिंस मिशिकन जैसे अच्छे, भोले इंसान का चित्रण
करना चाहते थे, जो सुंदर हो, आदर्श हो। उनके अनुसार, जो आदर्श है और
उसका अभी तक पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। उन्हें भी लगा कि ऐसे पात्र के
चित्रण से कठिन कोई दूसरा काम नहीं। उन्हें सही लगा था—ऐसे पात्र का मिल
जाना कितना कठिन है, मुझसे पूछिए...मैं दस साल से ढूंढ रही हूं, तो ऐसा
ही है हमारा प्रिंस...खुद के मखौल के बीच, खुद पर हंस देने वाला,
दुनियादारी से एकदम अनजान, साफ बल्कि बौड़म!