Saturday, January 24, 2009

भरे आदमी को भरी बोतल से भरा जाम

मुबारक हो मंटो मर गया ....आप हम सुरक्षित हैं ,मजे मारे !वो होता तो आपके साथ मज़े जरूर मारता और आपको ठीक उस वक्त पकड़ लेता जब आप सब को अलविदा कह अपने हमाम में घुस सरे खिड़की दरवाजे रोशनदान बंद कर अपने कपड़े उतर चुके होते ।न नाराज़ न हों आप में छिपे शैतान ही की बात नही कर रही , साफ़ कपडों में छिपे मैलही को नहीं ,मैल से ढके श्वेत को भी वह पहचानता था । जैसे इसर सिंग जैसा बलात्कारी खुनी जैसे ही इंसान बना उसने उसे पकड़ लिया ।

लेकिन फिर भी ध्यान से रहियेगा,निश्चिन्ता की ठंडी साँस आप अब भी नही लेसेकते क्यूंकि जो मरा वह दरअसल सआदत हसन है मंटो नही। बस बातें काफ़ी हैं ये साबित करने को ।

बात एक - जो घर की सफाई करता है ,गप्पे मारता है ,घूमता है,खाना खता है आदि आदि ...वह सआदत हसन है क्यूंकि जब मेरीमें कलम नही होती मैं सिर्फ़ सआदत हसन रहता hun ,हाथ में कलम आते ही मंटो बन जाता हूँ ।

तो जनाब जब मरे हाथ में कलम नही थी ,बिस्तर पर थे। तो मरने वाला मंटो नहीं था । फिर मंटो होता तो आखिरी शराब जो मुंह से लुड़क गई कभी न लुड़क ने देता बल्कि आखरी बूंद तक को घूंट भर के पीता ।

बात दो- यंहा सआदत हसन मंटो दफ़न है ,उसके सीने में फने अफ्सनानिगारी के के सारे असरार और रमोज़ दफ़न हैं । वह अब भी सोच रहा है की वह ज्यादा बड़ा अफसानानिगार है या खुदा ?

तो सआदत हसन मंटो सोच रहा है याने जाग रहा है और जाग रहा है माने देख रहा है । मंटो कब तक जगे रहोगे ?आँखों को कुछ आराम दो ।

लिखते हुए लगता है अभी कब्र से निकल आओगे और पूछोगे "तुम होती कौन हो मेरे बारे में लिखने वाली?दस्तावेज़ पढ़ लेने से मंटो के बारे में कहने का हक तुम्हे नही मिल जाता ।

"एक बार बीच बाज़ार में मंटो के एक कर्ज़दान ने उन्हें पकड़ लिया ।

-हतक तुमने लिखी है ?

-हाँ !लिखी है तो?

-जाओ तुम्हारा क़र्ज़ माफ़ किया ।

-हुह! तुम क्या सोचते हो मुझ पर तुम्हारा पैसा उधर है तो तुम्हे मेरी कहानी को अच बुरा कहने का हक़ मिल जाएगा ?मई जनता हूँ मेरी कहानी कैसी है ,क़र्ज़ मैं उतार दूंगा ।

इसलिए ही मंटो पर चले मुकदमे उसके दिल पर कोई कालिख नही लगा पाये और साहित्य का सबसे बडा पुरूस्कार भी मिल जाता तो कहते ,"ये कौन होते हैं मेरी कहानियो की समीक्षा करने वाले ?मई जनता हूँ मेरी कहानिया कैसी हैं "।

ख़ुद पर ,बस ख़ुद पर विशवास था मंटो को । अपने बारे में अच्छा बुरा कहने का हक उसने किसी को नही दिया । वह ख़ुद ही अपने बारे में फ़ैसला करता और जनता था ।

अल इंडिया रेडियो में १०० नाटक पूरे हो चुके थे । मंटो से एक नाटक में कुछ शब्द बदलने को कहा गया । "ये नाटक मंटो का लिखा है ,इसमे मैं कुछ नही बदल सकता ,ये ठीक ऐसा का ऐसा रहेगा ,आपको ऐसे नहीं पसंद तो किसी और से लिखवाइए। "और नोकरी को लेखक ने अपने कलर से झाड़ दिया । वो लेखक के आलावा भी था ,३ बच्चियों का पिता था लेकिन उसकी पहली इमानदारी अपने आप से थी ,मंटो से थी ।

उसके पात्र भी ऐसे ही थे ,जिद्दी,गंवार ,व्यभिचारी,बदनाम लेकिन जूठे नही थे और बनावटी नकली तो बिल्कुल नहीं । वे असली लोग थे जिनके सीनों में दिल ऐसे धड़कता है की आवाज़ बाहर तक आती हैं। वह उस वर्ग का लेखक नहीं था जिनके नीचे गटर और ऊपर धुआ रहता है ,जो बिच में चलते हैं और मोका देख कर या हवा के रुख से रुख बदल लेते हैं । वह निर्भीक लोगो का लेखक था। वो कहता है मुझे पतिव्रता स्त्रियाँ नहीं जमती ,मुझे तो वो औरत लगती है जिसे प्रेम पति के आलिंगन से निकाल कर प्रेमी की बाहों में बिठा देता है । जन्हा दिल घड़ी की तरह टिक टिक नहीं करता बल्कि आग के गोले की तरह तपकर चटखता है । उसके लिखने में यह नही था की ये लिख सकते हैं वह नहीं ..वह तो जैसा देखता वैसा ही लिखता । अच्छे बुरे का ख्याल कर के नही लिखता .कहता "संस्कृति समाज कोक्या उतारूंगा, हजार लोग मिल कर भी एक नंगे आदमी को और नंगा नहीं कर सकते । हाँ मई उसे कपड़े भी नही पहनता क्यूंकि कपड़े पहनाने का काम दरजी का है मेरा नहीं । मेरी कहानिया आप बर्दाश्त नही कर पाये तो समझिये आपकी दुनिया नाकाबिले बर्दाश्त हैं ।

आप ख सकते हैं की वैश्याओं और दलालों के बारे में लिखने पढने की जरूरत ही क्या है ?जी दरअसल मंटो आदमी था और आदमियों के बारे ही में लिखना पसंद करता था कठपुतलियों के बारे में नहीं। आपके पेट भरे हुए हैं फिर भी आप पेट भरने के लिए आत्मा और मन का सौदा करते हैं ,मंटो को वो लोग पसंद थे जो पेट भरने के लिए देह का सौदा कर लेते थे और आत्मा साफ़ रहने देते थे । देह शुचिता ,देह की साफ़ सफाई की बातें वो लोग करते हैं जिनके पास लम्बी चौडी देह है ,मंटो ने जिनके बारे में लिखा उनके लिए तो देह को जीवित रखना बेडा सवाल था ।

कुछ साहब कहते हैं मंटो ने गलती की पाकिस्तान चला गया । लेकिन फर्क क्या है??उसने दोनों जगह कहानियाँ लिखी ,दोनों जगह उस पर मुक़दमे चले ,दोनों जगह उसके पास रहने को जगह नहीं थी । हाँ हिंदुस्तान में उसके मित्र श्याम ने उससे एक बार कहा की दंगो के वक्त मैं तुम्हे शायद मार भी सकता था.(श्याम की मौत की ख़बर सुन कर मंटो पागल हो गया था ।),मित्र अशोक कुमार को उनकी कहानिया पसंद अणि बंद हो गई थी और इस्मत ने कहा ,"मंटो पाकिस्तान में मकान पाजाने की आशा में हैं । वो मंटो था ...महफ़िल से चुपचाप चला आया । हाँ ठीक है की ६ फीट ज़मीन तो पा ही ली उसने ,जीके न सही मर के सही ।

और मंटो ने खूब लिखा जितना जिया उतना लिखा ,हर हाल में लिखा ......कहता था,"कहानी न लिखू तो लगता है जैसे शोच न्ही गया ,खाना नहीं खाया , शराब नहीं पी ,साँस नहीं ली ।

आतिश पारे पहली कहानी से शुरू किया था और अन्तिम कहानी कबूतर और कबूतरी लिख कर ........सोच रहा है की खुदा ज़्यादा बेडा अफसानानिगार है की मंटो ?