Monday, April 19, 2010

जंगल जंगल बात चली है...पता चला है…

अब हमारी अदबी जबान में ऐसा कम ही होता है कि यात्राएं संजोयी जाती हों। वैसे भी सजग रूप से लिखने-महसूसने वाले प्रकृति को एक कलावादी दृश्‍यों की तरह लेते हैं। सच बता रहा हूं, ऐसा रिपोर्ताज मैंने इससे पहले कभी पढ़ा – मुझे याद नहीं आता। निधि ने खास तौर पर इसे हमारे लिए लिखा है : ये टिप्पणी है मोहल्ला लाइव. कॉम के मॉडरेटर की। ये लेख वहीं सबसे पहले आया। वहीं से साभार, यहां इस मोड़ से पर पेश है...


इंसान जैसे जानवर, जानवर से इंसान!



पिछले 20 दिनों से मैं सूरज से नहा रही थी, हवा बिछा रही थी, तारे ओढ़ रही थी, चांद सिरहाना था। ये जन्नत का नजारा नजर आता है न? …तो हम सब को जो मालूम है जन्नत की हकीक़त.. फिर क्या कहूं? मैं पानी पर चल रही थी, हवा में गांठ लगा रही थी, अब जो उपमा मन को भाये, वो रख लीजिए, बस सीधे-सीधे कहती हूं, मेरी बात सुन लीजिए, इजाजत है? मेहरबानी!



बड़ा मन कर रहा था बताने का कि पिछले महीने भर मैं जंगल में रही (याहू बता दिया!!!), और वो भी ऐसे-वैसे नहीं… जंगलों में जंगल की हैसियत रखने वाले, जंगलों के राजा काजीरंगा में बिन नाम, बिन पते घूम रही थी। कहीं डगर बदल रही थी, कभी रास्ते भूल रही थी। घर से 3000 किलोमीटर दूर। साथ न दोस्त थे, न परिचित, न साथी। किसी जान-पहचान वाले से दो बात हो जाए, बस दुआ-सलाम या हाल-चाल हो जाने को फोन भी नहीं और सच, कहीं किसी की कोई कमी भी नहीं!

दूर जंगल में बिचरते हुए मैं जंगल-जंगल हुई जा रही थी और वही जंगल मुझे पनाह की सैकड़ो राहों में हजार बाहों से थामे था, जिसे डिस्कवरी वालों ने सनसनीखेज धुनों के साथ मिला-मिला के महाभुतहा साबित कर रखा है! न, मैं उनके काम को खारिज करने की बिसात नहीं रखती, बल्कि उनके लिए मैं अपनी टोपी उतारकर, सर झुका कर कहने को तैयार हूं – हैट्स ऑफ सर!

क्या कमाल की जानकारियां आप हम तक पहुंचाते हैं, लेकिन `ति-ली-ली-ली’ टोपी मैंने पहनी ही नहीं है और मैं हंसते हुए सबको बता रही हूं, जंगल जरा भी सनसनीखेज नहीं, डरावना नहीं। अरे! वहां इंसान जैसे जानवर रहते हैं, आप-हम जैसे जानवर से इंसान थोड़े ही!

जल जाएगी दिल की बुझी रोशनी


न यकीन हो मेरी बात पर, तो मिल आइए, भटक आइए जंगल में कुछ दिन! जो बुझ गयी होगी दिल की भीनी रोशनी, तो सब शमाएं जल उठेंगी। मन के परवाने मस्त हो महकने लगेंगे। सच! वादा रहा, इतने दिन में कभी रहस्यमयी, कंपकपा देने वाली कोई धुन किसी भी लम्हा मेरे अंदर नहीं गूंजी।

हां, आवाजें थीं… जंगल में हर ओर बिखरी हवा की, हवा में तैरते परिंदों की। सरसराहटें थीं उड़ती पत्तियों की, लहलहाते जुगनुओं की और इन सब सुरों से जो सुनाई देता था, हर ओर वो ताजगी से महका एक राग था… जादू का राग… जंगल का राग। जिसने बड़ी खूबसूरती से खामोशी को अपना हिस्सा बना लिया था। बस वही राग सिर चढ़कर, दिल भर कर बोलता था… और जो दिखा, वो बस हरा ही हरा था। इतना हरा कि नजर जहां तक जाती, उसके आर भी हरा था, उससे पार भी हरा। यूं, हरे के ढेरों नाम, ढेरों किरदार हैं। जाने क्या-क्या तो कहते हैं अंग्रेजी में sap ग्रीन, burnt ग्रीन, अलाना ग्रीन, फलाना ग्रीन, लेकिन मैंने उस जंगली हरे का एक नाम रख दिया है, वही नाम – वही किरदार, हरे पर जंचता भी है हमेशा… `सुहाना हरा’। हर ओर जो था, जहां था उस मौसम का रंग, हरे से ही तो सुहाना था। बीच-बीच में लाली से दमकता-दहकता पलाश, जैसे किसी खिलखिलाते चेहरे पर प्यार से किसी ने अबीर छिड़का हो और फूलों का रस पीने को मंडराती बुलबुलें, कूकती कोयलें, जैसे भरे सावन में तड़प कर किसी ने आवाज दी हो।

एक थी काजी, एक था रंगा…


अपने दिमाग की बत्ती तो यूं भी गुल ही रहती है और ये जो जुगनू सा चमकता दिल है मेरा। वहां जाकर पूरे पावर हाउस में तब्दील हो गया। होता क्यों नहीं, काजीरंगा के नाम ही में जो है प्यार, तो फितरत में कैसे न आता।
हां यूं तो होता ही है कई बार, ‘आंख के अंधे नाम नयन सुख’। लेकिन ऐसा भी होता है कई-कई बार कि नाम भी चिराग हो और रोशनी भी हो। कभी-कभी नाम नहीं भी होता और कहीं-कहीं कमाया भी जाता है। हालांकि ये नाम हमेशा अच्छे-अच्छे ही रखे जाते हैं, फिर भी ये बेचारे कभी-कहीं बदनाम भी हो जाते हैं, तो काजी और रंगा का नाम बदनाम हुआ या नामदार? चौंके? मैं गांव के हर दर पर, जबान-जबान पर कहानियां ढूंढ रही थी… वहीं एक नौजवान बोला, ‘अरे काजीरंगा के तो नाम में ही में कहानी है, वो भी प्रेम कहानी…।’



देश-विदेश के समझदारों को, खबरदारों को पता भी नहीं कि ये नाम काजीरंगा, जो इतना एक साथ लिया जाता है, घुल कर मिल गया है। दरअसल, ये कभी दो अलग-अलग लोगों का नाम हुआ करता था। एक थी काजी और एक था रंगा। पास ही के गांव के दो बेबाक प्रेमी और जैसा होता ही है इनका प्रेम, इतना गाढ़ा प्रेम कि दूसरों की सांस में अटकने लगा। फिर सजा मिली… सजा में समाज से बेदखली ही नहीं, प्रेम की दूरी भी थी। दोनों दूर, दो दिशाओं में भटकते रहे, फिर ढूंढने को, ढूंढ कर मिल जाने को चिड़िया बन गये। एक बनी केतकी, दूसरा एक कुली (कोयल की दो प्रजातियां) और आकर मिले जंगल में।

दोनों आवाज लगाते काजी… रंगा… और जंगल में ये आवाजें गूंजती रहतीं। मिल कर दोनों ने इतना प्यार किया कि उनका नाम हो गया। अब शान से इनकी कहानियां सुनायी जाती हैं और पूरी दुनिया बड़े प्यार से पुकारती है, काजीरंगा!

दिल है बीहड़, बहुत अकेला…


मैं जंगल में भीतर, और भीतर कदम रख रही थी और जंगल मुझमें बिछता जा रहा था। बहुत ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे और मेरा दिल भी बीहड़ है बहुत। अकेला जंगल और अकेली मैं, हम दो अकेले मिल कर कितने साथ-साथ हो गये… क्या बताऊं, घने पेड़ों और नदी से छन-छन कर आती हवा से दिल के सब दाग भर रहे थे, हर हलचल तरंग में बदलती गयी। नीली हवा के झोंकों में शरीर जैसे किसी तरल सा बहा जा रहा था।



शुरू में दिल की कुछ पुरानी-दबी हिलोरों ने मुंह उठाया भी, लेकिन जैसे-जैसे जंगल घनघोर हुआ, जिंदगी की कड़ी धूप को जंगल के हरे सायों ने ढक लिया और हरियाली की इस छांव में सब शांत, बेहद शांत होता गया… न चुप नहीं! गुमसुम भी नहीं! वैसा, जैसे नन्हे, नटखट बच्चे के चेहरे पर नींद में सुकून की मासूम मुस्कान खेलती है। कदमों की चाप, जो सुनसान रस्ते पर पड़ती तो खटर-पटर नहीं… न शोर भी नहीं… लगता, जैसे किसी बंजर साज पर बहकी उंगलियों ने मचलकर जुगलबंदी की है… हां सूखी पत्तियां, एक दम बुड्ढे, बड़े लोगों की तरह होती हैं, जरा सा छेड़ दो तो खूब खटर-पटर करती हैं…

मखमल घास, शाखों की बांह


जंगल में सब कुछ है। लहराने को घास। धंसने को दलदल। उठने को पेड़। डूबने को नदी। इसे ज्ञानी लोग बायोडायवर्सिटी एरिया कहते हैं, जो प्राणि विज्ञान के लिए सबसे अच्छा है। आपको एक ही जगह, अलग अलग किस्म और खूबियों वाले प्रकृति और प्राणी मिल जाते हैं। मैं इन सबके बीच विचरती रही और वो जंगल, वो रास्ता हर पल मुझसे मिलता रहा, मुझमें आकार लेता रहा… ये घास हिली और मखमल-सी बिछती गयी मुझमें… और आह! दिल हरी-हरी नयी-नयी घास से भर गया। खुशबू आयी न भीनी-भीनी…



यूं भी अपने देश के उस दूर-दराज हिस्से में वो जो घास मुंह उठाये खड़ी है, शाहों की शाह है। यूं तो उसकी लंबाई देख कर उसे हाथी घास कहा जाता है, लेकिन मैंने तो बड़े भारी हाथी को भी उस घास में खड़े-खड़े छिपता पाया। जी! इतनी ऊंची कि 10 फीट का हाथी ढंक जाए। हालांकि वक्त पतझड़ का था… घास के चेहरे पर कई जगह बुढ़ापा छाया था, रंग जर्द था क्योंकि फॉरेस्ट में इसी मौसम में घास पूरी उम्र लेती है और इसी मौसम में उसे जला कर खत्म भी किया जाता है, ताकि वो जगह दे और नयी नन्ही घास जन्म ले सके… जो खासकर वहां पाये जाने वाले गैंडों की पसंदीदा है। मेरा दिल क्या, पूरा वजूद घास की नरमाई में ढंक गया। अब एक पेड़ लहलहाया। ये जड़ों ने पकड़ा। मजबूती से कसा और प्यार से जकड़ा। कुछ और शाखें बाहों सी बढ़ने लगीं। ये लो मुझ पर भी बौर आ गये। ऐसे ही विशाल मजबूत पेड़ मुझे मिले वहां, जिनकी आदमकद-सी होती पत्तियां सूरज को अंदर झांकने भी नहीं देतीं। भला ऐसी प्यार की छांव में पक्षी क्यों न सुखी रहते।

ओ नदिया! रगों में दौड़ती-बहती रहना…


मैं गंगा से कई बार मिली। कई तरह से मिली। लेकिन अबकी उसकी बात वेटिंग में… गंगा के ही नजदीक से निकलती है ब्रह्मपुत्र और असम में बहती है। मैंने ब्रह्मपुत्र देखी, बल्कि देखी कहां गयी? अपनी नजरों के पैमाने में वो ऊंचाई कहां, वो गहराई कहां कि आंख भर पाये ब्रह्मपुत्र से। दुनिया की सबसे विशाल ही नहीं, सबसे गुस्सैल नदी मेरे सामने स्वांग कर रही थी। एक और सुखद बात है कि खेलती कूदती डॉल्फिंस, जिन्हें निहारने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाना पड़ता है, ब्रह्मपुत्र के एक हिस्से को अपना मकाम बनाये हैं। हालांकि ये आकार में कुछ छोटी होती हैं, लेकिन मस्ती में कम नहीं। एक कंजर्वेटर से नदी के बारे में बात की, तो सुन कर मजा आ गया कि ब्रह्मपुत्र के बचाव और रखरखाव के लिए कुछ नहीं करना पड़ता।



हां! हर साल आने वाली इसकी गुस्सैल बाढ़ से इंसानों का बचाव करना भारी काम है। अच्छा लगा ये सुनकर क्योंकि, हमारे देश की बाकी सभी नदियां बीमार-सी, सूखी पड़ी हैं और अलग-अलग लोग उनके कंजर्वेशन के नाम पर युद्ध स्तर पर पैसा गंवा और कमा रहे हैं। फिर भी बीमार का हाल ज्यों का त्यों। लेकिन ब्रह्मपुत्र तो… जिधर देखती हूं, उधर तुम ही तुम हो। इस विशाल नदी से छू के आती हवा ने मेरे गाल सहलाये, बाल उड़ाये और दिल संदली-संदली कर दिया।

अब लो! दिल का गरमा गर्म उबलता-उफनता खून झील हुआ जा रहा है… खून की गर्मी जीवन के लिए मायने रखती है, लेकिन पानी कोई बुरी शय नहीं। सुंदरतम नेमत है। लेकिन जो खून पानी हो गया… ये सुनना गाली सा लगे, तो ठीक। कहती हूं, `बेहद शीतल लहलहाती ठंडी नदी मेरी रगों में उतर मद्धम-मद्धम बहने लगी… और कांटे लगने पर जो खून बहा, तब भी ऐसी ही मौज रही, जैसे खून नहीं, जरा सा शरबत छलक गया हो।’

जंगल मिला, ज्यों मिल गयी जिंदगी

जंगल में खोते-खोते जंगल मिलता गया मुझे। सब्र और सुकून की इन्तेहां ऐसे हुई कि दिल की हर मशाल लौ हुई जा रही थी। नाराज न होना – यूं मशालों की बेहद जरूरत है मेरी दुनिया को, लेकिन उसकी जरूरत भी तो नफरत ही की जाई है। उन झोंकों के बीच सरसराता मेरा वजूद इतना हल्का, इतना फुल्का हुआ कि मिट्टी के ढेले सा लगने लगता, फिर ये ढेला भी भारी-भारी सा। काश! ये इसी हवा में मरमरी हो बिखर जाए। वाह! आइडेंटिटी क्राइसिस की मारी मेरी दुनिया में ऐसा भी एहसास होता है और क्या खूब होता है! इतना साफ, इतना ताजा है सब कुछ कि लगता है – यही वह बिंदु है, जहां से पृथ्वी का जन्म हुआ है। लगता है न मैं ये हूं न वो, मैं बस हूं!

मेरे होने का… जन्म भर का… जीवन का… मोल… अनमोल। मुझसा हर कोई जो सांस लेता है, जीवित है, वही बस। सबसे अनूठी बात है कि जीवन है और, और हम सब इस एक जीवन की इकाइयां हैं। जंगल ही वो जगह है, जहां घूमते हुए आप खुद को हजार सालां महसूस करेंगे। जैसे, कितनी ही सदियों से जागते, भटकते दुनिया, सभ्यताएं देखा किये हों। महसूस होगा मैं इस दुनिया का सबसे पहला, सबसे पुराना प्राणी हूं, जिसने दुनिया पल-पल बनते देखी है और जो बनी है और ऐसी खूबसूरत बनी है, तो बिगड़ न जाए। जंगल ही वो जगह भी है, जहां आपको अचानक लगेगा – मैं अभी इसी क्षण जन्मा हूं। इतना नया हूं कि लम्हा भी नहीं हुआ आंख खोले। ये दुनिया पहली बार देखी है, इसी पल कायनात के पहली बार दर्शन किये हैं।


एक चिड़िया, अनेक चिड़िया…


चिड़ियों को खोज पाना इतना आसान नहीं था। यूं भी पापा कहते हैं – चिड़िया सबको नहीं दिखती। एक ही पेड़ पर आप चिड़िया निहारने का आनंद ले रहे होंगे, लेकिन अपने मित्र को दिखाते-दिखाते थक जाएंगे और उसकी नजरें चिड़िया के आसपास पर तक नहीं मार पाएंगी। इन्हें देखने के लिए तो प्यार की तमन्ना भरी नजर चाहिए। अच्छी-खासी, कूदती-फांदती चिड़िया, जो जंगली भैंसे की भीमकाय सींगों और पूंछ तक का खौफ नहीं खाती, रायनो की पीठ पर ठाठ से सवारी करती है, हमारी आहटों पर ही पर बिदकी जा रही थी। हम उसे दूर पेड़ पर दूरबीन से देखते और देखते ही देखते वो फुर्र करके… गायब! डाल से उड़ी, जा छिपी पत्तों के घने झुरमुटों के बीच। फिर धीरे-धीरे जाने कैसे वो दिल की बुलाहट पर आने लगी या आहट से फितरत पहचान गयी या शायद फोटो खिंचवाने का, हीरोइन बन जाने का जी चाहा हो… वो हमारी आंखों ही में नहीं, कैमरे की झपकती पलकों में भी समाने लगी।

मार्च के शुरुआती दिन थे और मैं चिड़ियों की तलाश में जा रही थी। गर्मी से मोटी खाल वाला आदमी बेहाल था, चिड़िया क्योंकर बहाल होती? सबने कहा – ये सही वक्त नहीं! सर्दियों में जाना… असम फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से भी परमीशन से पहले सलाह मिली – ‘इस मौसम में बहुत मुश्किल है, असंभव जैसा’, लेकिन मेरे हौसले भी बुलंद थे। इरादे भी अनेक। सारे नेक और मन में एक बात थी – काजीरंगा एंडेमिक बर्ड्स, यानी वो परिंदे, जो जन्मते जिस जगह हैं, दम रहने तक वहीं रहते हैं। अपना चंबा छोड़ जाते नहीं कहीं। गर्मी से डरकर विदेशी मेहमान परिंदे जब जा रहे होंगे अपनी प्यारी हिमालयन बर्ड्स ने कहा होगा, `कौन जाए हिमालय की गोदी छोड़कर’। मैं, मेरे कैमरा परसन नासिफ, असिस्टेंट धर्म, फॉरेस्ट गार्ड अनिल और हमारे रथ का सारथी बाबलू कमर की पेटियां कस कर उड़ लिये अपनी खुली जीप पर परिंदों से हाथ मिलाने।

दरख्तों पर परिंदों की प्रदर्शनी!


भरतपुर बर्ड सेंचुरी में मैं इतनी चिड़िया इस तरह देख चुकी थी, जैसे बर्ड्स की एक्जिबिशन लगी हो, वो भी `ओपन फॉर ऑल’। पेड़ों पर पत्तियों से ज्यादा परिंदे दिखते। नजारा ऐसा, जैसे जंगल कोई आर्ट गैलरी हो, पक्षी पेंटिंग्स और बनाने वाले ने अपनी कलाकृति बड़े सलीके से सजायी हो। काजीरंगा जैसे जंगल में तो ये यूं भी असंभव था, क्योंकि ऊंची-ऊंची घास और छतरी से फैले पत्ते जहां सूरज तक छिपाने का हौसला रखते हैं, फिर वहां चिड़िया कहां दिखती… सो हम एक-एक डाल से चिड़िया चुग रहे थे। हां, मौसम नये-नकोर सपूतों की पैदाइश का था, रायनो हों या हाथी या जंगली भैंसे या पक्षी। कुछ की गोदें बच्चों से भर चुकी थीं। कुछ तैयारी में थे और अगले महीने तक वो भी बाल-बच्चेदार हो जाने वाले थे। कुछ के साये कैमरे में कैद हुए और छूट गये वो नजारे आंखों में सजे अब भी तैर रहे हैं।



मैं 450 हिमालयी चिड़ियों के नाम-पते साथ ले गयी थी कि सबसे मिलूंगी। लेकिन दिन भी कम थे और दोस्त ज्यादा। सो कोई 30 तरह की चिड़िया दिखीं और 24 किस्म की चिड़ियों ने फिल्म में रोल निभाया (अब ये न पूछना किसका कितना पार्ट था, लेकिन हां हर चिड़िया अपने आप में एक किरदार थी)। अब अगर तकदीर सी कोई चीज होती हो तो हमारी अच्छी थी, क्योंकि दस दिन में जंगल में इतना फिल्मा लेने पर `वाह! वाह! क्या बात है’ न भी कहा जा सके, तो भी पीठ ठोंकने लायक कारनामा तो है ही। हां, हमें पंछियों का मेला तो नहीं मिला… लेकिन हम डाल से पंछी चुग रहे थे, एक-एक चिड़िया के पीछे भाग रहे थे।

चिड़िया जब पहली बार दिखती और हम फिल्मा नहीं पाते, तब थोड़ी निराशा होती। लगता-फिर मिलेंगे या नहीं! किंगफिशर मिला और बहुत खूब मिला। सपरिवार मिला। लेकिन आंखें तब झपकना भूल गयीं, जब जिन्दगी में पहली-पहली बार ह्वाइट किंगफिशर को देखा। डाल पर बैठा था। जब तक देखती फुर्र। लेकिन देखकर ही आंखें तृप्त हो गयीं। फिर एक झील पर मिला। कैमरा सेट होते ही उसने उड़ान ली। हमने उसकी उड़ान का पीछा किया। लेकिन कहां कर पाये। क्योंकि बाकी पंछियों की तरह अर्ध गोला बनाते, उसने धीमे-धीमे उंचाई नहीं पकड़ी, बल्कि वो ठीक निशाने पर लगने वाली गोली की तरह आकाश भेदता सीधे उड़ा। अब मैंने ठान लिया, `साहब को फिल्माना है’, फिर वो हमें एक झील पर मिले… आखेट पर निकले हुए। (इस झील को याद रखिए, आगे बताऊंगी… क्या कुछ मिला यहां!)

झील किनारे, किंगफिशर पुकारे


कैसी झील थी, वो क्या बताऊं… दूर तक धरती के सीने पर मचलती लहरें। लहरों के किनारे भीगी धरती और धरती के किनारे मुंह उठाए झुंड के झुंड खड़ी घास। इसी झील के पानी के ऊपर आसमान में स्टैच्यू से खड़े हो गये सफेद किंगफिशर साहब। ऊपर से पानी में झांकते हुए। फिर अचानक तेज पंख फड़फड़ाये और सीधे पानी में वार किया। बल्कि पानी में छिपी किसी मनचाही स्वादिष्ट डिश पर। लेकिन इस बार भी हमारे कैमरे की नजर चूक गयी। काफी देर इंतजार किया, लेकिन पेट भरने पर तो तान के सोया जाता है, सो वो न आये। मुझे लगा जो तीन बार दिखा है, तो फिर जरूर दिखेगा और इस झील में शिकार खेलता है तो यहीं आएगा। लौटकर, उसी शाम हम उसी की तलाश में फिर झील पर आये और देखा साहब पैनी निगाह धारदार चोंच ताने फिर पानी पे फड़फड़ा रहे थे। इस बार मैंने गार्ड दा की बंदूक तान दी। मुस्कुराते हुए कहा, `मुझे ये शॉट चाहिए… मतलब चाहिए ही’ और हुर्रे हमें मिल गया। हमने सांस थामे, आंख गड़ाये उसका पीछा किया और पा लिये चमचमाते-उड़ते रंग और ये बेबाक उड़ान। बहुत खास झील थी ये। इस झील पर हमने कई किस्म के परिंदे ही नहीं पाये, जानवर भी पाये और इंसान भी पाये।

फिर मिलना तुम यार रायनो!



यूं, न मैं कोई जंगल विशेषज्ञ हूं, न कोई समझदार जंतु अन्वेषक, सो मैं क्या बता पाऊंगी आपको जंगल के बारे में। लेकिन चूंकि जंगल से मिलकर लौटी हूं और बहुत अमीर होके लोटी हूं, सो बोलने को बहुत कुछ है मेरे पास। शायद मैं ऐसे बोलूं, जैसे-कोई छोटा बच्चा अपने पहले शब्द बोलता है। फिर भी शायद जो मैं जंगल के बारे में कह पाऊं, वो कोई और न बताये, सो मुझे मेरे हिस्से का कह लेने दीजिए। मैं वहां चिड़ियों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने गयी थी… उनके पीछे डाल-डाल भागते हुए ये जंगल मुझ पर किसी हसीन राज की तरह धीरे-धीरे खुलता रहा। भरा-पूरा जंगल था और जंगल में मंगल ही मंगल था। मुझसे पहले तीन दोस्त वहां घूमने जा चुके थे। दो खाली हाथ, जबकि एक-एक साथी रायनो की एक तस्वीर के साथ लौटे थे।




हालांकि डॉक्यूमेंट्री के चलते खास हिस्सों में जाने की इजाजत थी, सो मैं जंगल में वहां-वहां थी, जहां टूरिस्ट नहीं बस जानवर ही मिला करते हैं। 5-5, 6-6 के झुंड में घूमते रायनो तक मिलते, हर दिन 20 से 25 रायनो देखे। इतनी बार, इतने करीब, इतनी तरह से देखे कि उस तरह तो अपनी गली में भटकते कुत्ते और गाय तक नहीं मिलती। कितनी ही बार एक ही पगडंडी पर हम आमने-सामने हुए। हम रुके, ताकि वो पहले रास्ता पार करे। कितनी ही बार हम रुके कि सामने और पीछे, हर ओर के रास्तों पर वो जुगाली कर रहा था। मैं गदगद हुई जा रही थी कि अपने घर से इतनी दूर, एक ऐसा दुर्लभ प्राणी मुझे इस तरह दिख रहा है, जो हमारी ओर पाया ही नहीं जाता।

झील के पास… (वही झील, जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुकी हूं), दलदल के एक सूखे हिस्से में हम कैमरा लगाये खड़े थे। बाबलू ऊंची-ऊंची घास के पास पढ़ने में गुम था। मुझे उस घास के जंगल में जहां नजरें तक उलझ जाती हैं, कहीं रायनो की हलकी सी आवाज सुनाई दी। पूरा यकीन तो नहीं था, फिर भी कहा – आसपास शायद रायनो है और सिक्यूरिटी दादा बोले – अरे नहीं-नहीं, लेकिन दो मिनट के अंदर ही हम सब कुछ उठाकर और कुछ गिराकर भाग रहे थे। क्यों भला, इसलिए क्योंकि हमसे मीटर भर की दूरी पर ही रायनो था। अचानक मैंने पाया, सब बहुत आगे निकल चुके हैं और मैं और सिक्यूरिटी दादा पीछे-पीछे और हमारे समानांतर उसी दिशा में तेजी से भागते हुए एक रायनो निकला। दूसरा हमारे साथ-साथ भागने लगा। हम ठिठक गये, दूली राम ने हवाई फायर करना चाहा, पर बंदूक नहीं चली। हम चुपचाप खड़े थे। मैं तैयार थी। आज हम अपनी वफाओं का असर देखेंगे। लेकिन रायनो तो पहले वाले रायनो का पीछा करते निकल गया। उसने मेरी ओर झांका तक नहीं। फिर पता चला, आगे रायनो नहीं रायनी थी, जिसका पीछा करने में उसका रायनो मशगूल था। फिर भला मुझे क्यों देखता।

उसके जाने के बाद हम सब दूली राम पर हंस रहे थे और गार्ड्स के मचाननुमा पड़ाव पर बैठे लाल चाय के साथ गप्पें मार रहे थे। दोपहर 12 से 2 बजे जब सूरज सर तक चढ़ आता, तो हम जंगल के बीच इन्हीं मचानों पर गार्ड्स के साथ खाना खाते-बनाते और किस्से-कहानी बतियाते और हां, विविध भारती भी सुनते। तो इस झील पर मिलने वाले परिंदों की भी बात हुई और जानवर की भी कहानी हुई पूरी, लेकिन ये झील ऐसी करोड़पति झील थी कि इस पर इंसान भी मिले।

सुनो कहानी – शेर के मुंह में उपेन दादा का हाथ


नन्हे-मुन्नों जैसे भोले-भाले चेहरे वाले एक सुंदर, प्यारे से बुजुर्ग वहां रायनो प्रकरण पर हंसते हुए घूम रहे थे। मैंने उनसे गार्ड के काम के बारे में कुछ बात की, तो मुस्कुराते हुए अपना हाथ दिखाया। चमड़े की पतली सी नयी परत हड्डियों पर ढकी थी। बोले, `तब मैं जवान था, जब टाइगर से मेरी यहां मुठभेड़ हो गयी। मुझे न उसे मारना था, न खुद मरना था। उसने मेरे सिर की ओर निशाना साधते हुए मुंह फाड़ा और मैंने सिर की जगह अपना घूंसा उसके जबड़ों की गुफा में घुसा दिया। हाथ तो गया लेकिन जिंदगी बच गयी न।’

ये कहने के बाद उन्होंने कुछ और निशान दिखाये। शरीर पर इतने टांके, जैसे – मांस की कतरन जोड़-जोड़ के शरीर बना हो। ये टास्कर से लड़ाई के निशान थे (टास्कर, बोले तो – एक मीटर लंबे दांतों वाला खतरनाक जंगली हाथी)। उनके किस्से पूरे भी नहीं हुए थे कि नौजवान गार्डों ने टोक दिया – ये सब ठीक है, लेकिन बाहर वालों को क्यों बता रहे हैं? जंगल की ऐसे बातें बताने की अनुमति नहीं हैं। दादा ने उतना ही हंसते हुए कहा – मैं साठ साल का हो रहा हूं। कितनी कहानियां हैं मेरे पास। अगर मैं लिख पाता, तो अपनी आत्मकथा लिखता। अब ये लड़की मेरी कहानी लिख देगी।

मैंने भी कहा – हां दादा, मैं आपकी कहानी पूरी दुनिया को बताऊंगी। दादा का नाम है उपेन तामोली और उन्होंने कहा था – मेरा नाम भूलना नहीं। मैंने भी वादा किया था – दादा मैं आपका नाम कभी नहीं भूलूंगी। देखो दादा मुझे याद है! हमेशा रहेगा!! ऐसे ढेरों गार्ड हमें जंगल में मिले, हम थे जिनके सहारे। ये आस-पास के गांवों के ही लोग थे, जो जानवरों-खासकर रायनो से हमारी और जंगल में जान-माल की रक्षा की खातिर यहां गार्ड की ड्यूटी निभा रहे थे। महज 1500 रुपये में घर से दूर, तमाम खतरनाक जंगली प्राणियों से भरे जंगल में नाम की बंदूकें लिये इस धरती, इस आकाश के नाम अपनी जिंदगी लगाये हुए थे। उनके पास ना ठीक कपड़े होते, न खाने सा खाना… हां एक रेडियो और शुभकामना के लिए गले में लटका हिरन का सींग हर जगह मौजूद था।

सफेद बर्फ पर काली रेशम

स्कूल में एक हिमालयी चिरिया वेग टेल पर एक कविता पढ़ी थी। छोटी-सी, बित्ते भर की पंछी, सफेद बर्फ पर काली रेशम की कसीदाकारी सा रंग। अपनी पूंछ पेंडुलम की तरह ऊपर-नीचे टक-टक करती रहती है। दिखी और देखते ही पहचान हो गयी। शुरू में तो उसने भी नखरे दिखाये, फिर तो इस कदर दिखी कि जहां जा रहे हैं, वहीं वो आगे-आगे। यहां तक कि जीप के आगे उड़ रही है। जीप रोकी, तो वो भी बैठ गयी। छोटी-छोटी घास के बीच अपना भोजन तलाशते और आराम से शौक फरमाते उसे खूब देखा। ब्राह्मणी बतख, लाल कलगी लगाए सुनहरे रंगों से भरपूर जंगल फाउल, सुंदरता में मोर की बराबरी करने वाली खलीज पिजेंट जैसे खूब पक्षी मिले, लेकिन मजा तो हमें तब आया, जब पक्षी ढूढ़ते-ढूंढते हमें नदी किनारे एक ठूंठ मिला। यूं, पक्षी देखने में गर्दन ऊंची रखने की आदत हो गयी थी और हर चीज चिड़िया नजर आती थी। हंसते थे कि अब तो सपने में भी चिड़िया दिखती है और शॉट बनने से पहले उड़ जाती है…।

उस ठूंठ की बात ही कुछ और थी। गर्मी से गरमाये पक्षी नदी में गोता लगाते, फिर वहां बैठकर सूर्य स्नान का मजा पाते। पांच किस्म की चिड़िया। हैरानी ये कि एक के बाद एक चिड़िया वहां आती, जैसे हमाम की लाइन लगी हो। एक ही जगह इतनी चिड़िया। हमारे तो हौसले बुलंद हो गये। हमने उस जगह को फोटो स्टूडियो नाम दे डाला और हौसलों की बुलंदी कुछ ऐसे बढ़ी कि जब द्रांगो नाम की नीली चमकदार चिड़िया देर तक ठूंठ पर नहीं बैठी तो धर्म ने कहा – चुप! फोटो दो!

आर्रलेसर एडजंट, ग्रेटर एडजंट, स्टॉक, ब्लॉक नकद स्टॉक जैसी बड़ी भारी चिड़ियों का जिक्र तो करना ही भूल गयी। कद चार फीट के आस-पास। सुराहीदार गर्दन और सीधे सज्जन व्यक्ति की तरह हैं ये, जो बिना तेवर दिखाये आसानी से दलदल में दाना-तुनका चुगते दिख जाते थे। घंटों एक ही जगह, एक ही मुद्रा में खड़े या टहलते। हां, ज्यादा आहट हुई तो दलदल या पानी के पास खड़े ऊंचे पेड़ों पर बने अपने घोंसलों पर उड़ जाते। मैं तो हैरान हो गयी इन्हें उड़ता देख। विश्वास नहीं हुआ, इतना भारी शरीर लेकर भी कोई उड़ सकता है। अब पंख है तो उड़ान भी है… लेकिन इसी भरे-पूरे शरीर के कारण इनकी उड़ान बेहद खूबसूरत, भद्र सी लगती है। आकाश का एक हिस्सा इनके पंख ढंक लेते और सुनहरी किरनें इनसे फूटती-सी दिखतीं। अगर आकाश पर छायी इनकी ये उड़ान न होती, तो शायद ये मुझे उतने पसंद ही न आते। मुझे छोटी चिड़िया ज्यादा पसंद हैं। वो मुझे चमत्कृत कर देती हैं, हैरान-परेशान कर देती हैं। बड़ी चिड़िया के पास सौम्यता तो है, लेकिन वैसी चंचलता नहीं। उनके रंग अक्सर फीके ही होते हैं, धुंधले-धुंधले, ताकि वे आसानी से नजर न आएं, जबकि छोटी चिड़ियों ने जम के रंग-गुलाल खेला होता है। एक से एक चटखदार रंगीन दुशाले ओढ़े… जैसा रंग, वैसा ढंग। मिजाज भी रंगीन, फुर्र से गायब हो जाने वाली, आसानी से हाथ (नजर) न आने वाली। खूब ललचाती, बहुत सताती ये छोटी चिड़िया और मैंने भी खूब सताया अपनी टीम को। बहुत दौड़ाया, क्योंकि मुझे यही प्यारी थी। मुझे यही बोलती-बुलाती सी लगती। वो हमें एक पेड़ पर दिखती। लाल, हरी, पीली, नीली और चिड़ियों से लहलहाया पेड़, जैसे-रंगों का एक डिब्बा हो। हम जब तक उतरते, वो उड़कर दूसरे पेड़ पर। हम वहां जाकर कैमरा लगाते, वो तीसरे पेड़ पर। देर तक लुका-छिपी चलती, फिर अचानक भूल-भुलैया शुरू हो जाती। वो किन्हीं पेड़ों में गायब हो जातीं… हम जान ही नहीं पाते कि कहां गयी? ढूंढते… कभी रास्ता भटक जाते, कभी मंजिल पा जाते। हमें खूब छकाने वाली चिड़ियों में नीलकंठ भी शामिल थी।

चिनार वन में ड्रिल मशीन


चिनार वन से गुजरना अपने आप में एक खुशनुमा एहसास है, लेकिन अगर इन चिनार वनों के बीच घुर्र-घुर्र की ऐसी आवाज सुनाई पड़े, जैसे – कहीं दूर कोई ड्रिल मशीन चल रही है तो समझ जाइएगा, पास ही कहीं वुडपैकर अपना आशियां सजा रहा है। हमने उसे डाल-डाल, तने-तने घूमते पाया किसी जिम्मेदार गृहस्थ की तरह घर की जमीन ढूंढते। वो एक-एक तने पर चोंच मारकर जांच रहा था और मनचाहा तना मिलते ही घुर्र… और लो, घंटे भर में ही तैयार है मकान। इंतजार में है मेजबान। एक कोर्मोरेंट डाल पर पंख फैलाये मिला। हमें देखते ही पर समेटे-फैलाये और उड़ गया, लेकिन बाबलू ने बताया – ये फिर दिखेगा, यहीं दिखेगा। ये पिछले साल भी यहां आया था और इसी डाल पर बैठता था। मैंने उसके शब्द पहेली की तरह सुने – तुम्हें कैसे पता कि ये पिछले साल वाला ही कोर्मोरेंट है। खैर, शाम को हमें वो, वही कोर्मोरेंट फिर उसी डाल पर बैठा मिल गया। शान से पंख बांहों की तरह खोले बैठा था। लगा – खुद को ईसा मसीह समझता है। मैंने जाना – जैसे, हम अपनी पसंदीदा जगहों पर लौट-लौट कर जाते हैं, ये पक्षी भी ऐसे ही, वहीं आराम फरमाते हैं।

यूं, काजीरंगा में पेलिकान वैली ही है। किसी भी झील के पास सत्तर-अस्सी पेलिकांस एक साथ देखने का मजा लिया जा सकता है। हालांकि गर्मी के कारण हमें सात-आठ के ही झुंड मिले। गुलाबी रंग और लगभग दो फीट का पेलिकन! मिठाई चुराने जाते किसी बच्चे की तरह पैर दबाते हुए चलता। पानी के किनारे झुंड में पसरे वार हडड गूज मिले, जिनका ये नाम उनके सिर पर पड़ी लकीरों के कारण पड़ा। हर वक्त या तो आलसी ऊंघते या घास में टूंगते। सुबह से शाम तक बस सोने-खाने में तमाम करते। बमुश्किल ही कभी उड़ते भी, तो कहीं पास ही जाकर फिर जम जाते। हमें घोसला बनाती चिड़िया मिली, शिकार करती खास फिश आई इगेल। जब हम देर तक किसी चिड़िया की हरकतें संजो चुके होते, तो चाहते कि इनकी उड़ान भी मिल जाए, ताकि इसकी उड़ती तस्वीर के सहारे हम भी दुनिया का एक चक्कर लगा आएं। लेकिन होता ये कि चिड़िया घंटों नहीं उड़ती। हम हाथ-पैर जोड़ते रह जाते। उड़ान के इंतजार में घंटों खड़े रह जाते। अब कोई कानून तो है नहीं। नहीं उड़ना, यानी नहीं उड़ना और कोई-कोई चिड़िया देखते ही उड़ जाती।

चिड़ियों में दो तरह की चिड़िया ही पायी जाती हैं। एक उड़ने वाली, एक न उड़ने वाली। एक से रुकने की प्राथना करते, एक से उड़ने की और दोनों ही थीं अपने मन की। धीरे-धीरे हमें बैठने की मुद्रा से पहचान हो गयी – ये उड़ेगी, ये नहीं! एक बार न उड़ने वाली बारबेत पेड़ पर दिखी, कैमरा लगाया गया, शॉट तैयार था… इतने में अनिल दा ने टहलते हुए सीटी बजा दी और सुरीली चिड़िया को ये पसंद नहीं आया। वो उड़ गयी। सुबह से ज्यादा शॉट मिले भी नहीं थे, सो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया। मैंने तमतमाते हुए कहा – उड़ा दी न? अब वापस बुला के लाओ… और सब हंस दिये। मुझे आज तक समझ नहीं आया – क्यों हंसा जा रहा है मुझ पर!

हालत तो ये थी कि शिकार चिड़िया तलाशती, दुआ मैं मांगती – काश! इसे कोई शिकार मिल जाए। जैसे ही चिड़िया पानी में चोंच मारती, मुझमें भी उम्मीद गुदगुदाती, आशा जगमगाती, ‘खाने को कुछ मिला?’ हां, कुछ चिड़िया ऐसे भी थीं – ‘मैं अलबेली बड़ी शर्मीली’। अब न जाने शर्मीली थी कि बस यूं ही चिढ़ाने को पीछे-पीछे घुमाने के लिए तेवर दिखा रही थी। एक थी कोकुल, धरती को ढके, घनी झाड़ियों में भागकर छिप जाती। काले मखमली शरीर पर सोने से सुनहले पर और खूब भारी काली पूंछ, जैसे-किसी लड़की की पीठ पर मटकती सुंदर चोटी। धरती से उठते आकाश तक जाते पैरों पर भी एक और थीं मोहतरमा… मिस माल्खोआ साहिबा। कमाल की खूबसूरत, गजब का चमचमाता नीला मोरपंखी रंग और उस पर सफेद पोल्का स्पॉट्स और पूंछ जापानी पंखे सरीखी फैलती। उसकी मैंने ढेरों तस्वीरें देखीं, लेकिन हर तस्वीर माल्खोआ के तस्सवुर के आगे फीकी निकली। तस्सवुर भी कैसा? पलक झपकाने जितना, बस उसको तो पूरा-पूरा देख भी न पायी। जब दिखी, पीछे से भागती-छिपती नजर आयी। इतनी फुर्तीली कि नजर पकड़ ही न पाये। हम कहते – इसका नाम है माल्खोआ। इसे माल खिलाओ, तब आएगी। मन तो करता था, उसे हाथ पर बिठा के समझाती, बतियाती – क्यों भाई, बड़ी उड़ रही हो। यूं, ऐसे फिरना, वो भी ऐसा रूप लेके, कुछ ठीक नहीं।

तो कोकुल और माल्खोआ ने हम पांच को पीछे-पीछे खूब दौड़ाया, छकाया पर मोस्ट वांटेड ही बनी रहीं। वो तो बाद में पता चला, जब किताब-कहानी दोनों एक ही प्रजाति की हसीनाएं थीं, सो एक-सा खून रगों में था या दोनों ने मिल कर तय किया था – आसानी से हाथ न आना। जो किसी को मिल जाएं, तो मेरा सलाम कहना और कहना – निधि इंतजार करती है, कभी मिल आओ।

मिला तो हमें वो भी, जो काजीरंगा के जंगल में पंछियों का राजा है – ग्रेट पाइड इंडियन हॉर्नबिल। सिर के ऊपर से जो उड़ान भर के निकल जाता, तो कान उसके परों की आवाज सुनकर आत्मविभोर हो जाते। `जप्प जप्प जप्प जप्प’ सी आवाज कानों में उतर जाती। डाल पर मीठे रसीले फल चटकारता मिला। अच्छा-खासा भारी-भरकम शरीर। बड़े-बड़े रंगीन पर, लेकिन सबसे बड़ी खासियत ठीक राजा के मुकुट सी सजी इसके चेहरे पर चोंच। यूं, इस अनमोल चोंच की कीमत कोई क्या लगाएगा, फिर भी सुना है कि बड़ी बेशकीमती है। हर बेशकीमती चीज के लिए लूटपाट होती है, सो लुटेरों ने इस चोंच के लिए खूब हॉर्नबिल मारे। सिर्फ हिमालय में पाये जाने वाले इस पक्षी पर हिमालय वाले नाज करते हैं और नाज का नजारा दिखाने को उसकी चोंच अपने माथों पर सजाया करते। हालांकि अब ऐसा करने पर रोक लगा दी गयी है और चूंकि हॉर्नबिल तो ज्यादा बचा नहीं, सो प्लास्टिक की चोंचें बाजार में मिलने लगी हैं। अब हमारी दुनिया ऐसी ही नकली चीजों से सजायी जाएगी… प्लास्टिक के पंछी, कागज के फूल, पत्थर के लोग!

रॉकेट-सी उड़ती जीप, कहीं भी बैठकर पढ़ता बाबलू

हिमालय की गोद में और क्या खास मिलता है? बताऊं? वहां बाबलू पैदा होते हैं। अरे वही, हमारे रथ का सारथी, जो जीप को रॉकेट की तरह चलाता था और पंछी देख के ख़ुशी से ऐसा बावला हो जाता था कि हम सब कहते थे – बाबलू रुक-रुक-रुक और वो जीप की स्पीड और तेज कर देता। लगता – सीधे डाल पर ही ले जाएगा। वो तो शुक्र है कि उसका बस ही नहीं चलता। बस हमारा चलता, जो उसे डांट कर जीप रुकवा देते। नहीं तो बाबलू सीधे चिड़िया के घोंसले के आगे ही जीप पार्क करता। पर रुकिए… बाबलू ये नहीं है… या ये भी है पर इससे ज्यादा बहुत कुछ है। तेरह साल का लड़का है, जिसके जीप चलाने से उसका घर चलता है। घर में मां है, बहन है, भाई है। बाबलू इससे भी बहुत कुछ ज्यादा है।



ये जंगल से जुड़े एक ऐसे गांव का बच्चा है, जहां पता नहीं चलता – कहां जंगल शुरू होता है, कहां गांव खत्म होता है। दिल में जंगल, आंखों में खोज, होंठों पर खुशी… एक हाथ में दूरबीन, एक हाथ में किताब और मन में ललक ही ललक। जहां जरा सी फुरसत मिल जाती, पढ़ने बैठ जाता। न किताब उसकी, न दूरबीन, इसलिए ही शायद उसे उस किताब और समय की कीमत पता है। मिले हुए वक्त का एक भी मिनट गंवाये बिना वो किताब में पूरा खो जाता। हैरानी होती, अंग्रेजी की मोटी-मोटी किताबें पढ़ता। कविताएं भी, लेकिन खासकर पंछियों पर लिखी। दूरबीन से देखता और पंछी का पूरा कच्चा चिट्ठा खोल देता। चलते-चलते भी पढ़ता रहता। बड़ा जादुई लड़का है बाबलू।

उसे दूरबीन और किताब में यूं गुम एक दिन देख रही थी, तो हंसी आ गयी – पूरा सलीम अली का पोता लगता है। काश! वो सलीम अली का पोता ही निकले। इतना पढ़े, इतना पढ़े कि सब जान जाए और सब दुनिया उसे जान जाए। जाते हुए मैंने उससे कहा – तू इतना पहचानता है चिड़ियों को… नाम-काम, और क्यों नहीं पढ़ता? सीधा जवाब – किताबें ही नहीं हैं।

बाबलू को कुछ ही दिन में पता चल गया था कि मेरे पास किताबें हैं और दूरबीन भी, तो नीचे ही से आवाज लगाता, दीदी किताबें रख लेना। और कुछ दिन में तो कमरे में आता, किताबें छांटकर ले जाता। मैं जाने लगी, तो आ गया और कहने लगा – आप कल चली जाओगी, तो मई क्या करूंगा। मैंने हैरानी से उसे देखा। भोली-भाली आंखों में ब्रह्मपुत्र उमड़ रही थी। फिर खुद ही कहा – `करूंगा क्या, बस जीप ही चलाऊंगा। पहले भी तो वही करता था…’ और, और उमड़ती नदी उसकी आंख से उफन गयी। मैंने कहा – चल! मेरे साथ राजस्थान चल, वहीं रह।
क्या आप सोच सकते हैं – तेरह साल का वो बच्चा, जो अपना घर चलाता हो, किसी के ये कहने पर कि तीन हजार किलोमीटर दूर चल… इस सवाल का क्या जवाब देगा? आपसे कोई पूछे तो आप क्या जवाब देंगे? मैं तो कभी वो बात नहीं कह सकती, जो बाबलू एक सांस में कह गया – वहां के जंगल में क्या-क्या मिलता है? मेरे मुंह से एक लफ्ज नहीं निकला। बस चेहरा ताकती रह गयी। कितना बसा है जंगल तेरे में? मैंने तो सोचा था – कहेगा, कैसे जाऊं या वहां क्या करूंगा? भला ये क्या सवाल हुआ बाबलू? उसके जंगल से बमुश्किल निकलते हुए मैंने जवाब दिया – जैसे यहां रायनो हैं, वहां ऊंट मिलता है। मोर मिलता है, नील गाएं, चिंकारा हिरन… वो थोड़ा खुश हुआ और बोला – ठीक है, कभी तो आऊंगा पर आप भूल जाएंगी। मैंने कहा – शायद अगली बार आऊं, तब तक तू लंबा हो जाए और मैं मोटी, तो तू भी नहीं पहचान पाएगा मुझे। वो बोला – मैं आपको हमेशा पहचान लूंगा किताबों वाली दीदी। याद हो आया। बचपन में जब कोई पूछता था – तुम कौन-सी निधि हो, तो पापा कहते थे साहित्य निधि। मैं वो तो नहीं हूं, होना असंभव है। लेकिन बाबलू की किताबों वाली दीदी बनके ज्यादा खुश हूं।

मेरे जयपुर आने के बाद बाबलू और गांव में मिले दोस्तों के फोन आये (बल्कि पहुंचने से पहले शुरू हो गये)। भाई ने बात करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन हो नहीं पायी। मैं आयी, तो मुझसे पूछा – उन्हें तो न हिंदी आती है न अंग्रेजी, तेरी दोस्ती कैसे हो गयी… खैर, वो भी छोड़। काम कैसे चल पाया…लेकिन होता है न ऐसा! कभी-कभी की बात हुई तो थी पर बनी नहीं और ऐसे भी तो होता है कि जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गयी… और हमारी बातें बनती ही चली गयीं। फिर ये भी तो कहते हैं – दिल की बात जुबान से नहीं, आंखों से बयां होती हैं। कहीं, कभी कुछ भाषा की वजह से नहीं अटका, बल्कि बातों से तो बना ही बना, बात ही बन गयी।

ऐसे लोगों को सरकस में बंद करो!

हां! बात बिगड़ी भी। ऐसे लोगों की वजह से, जिन्हें देख के लगता… उफ्फ! सीधे जंगल से छूटे हैं। इन्हें फौरन सर्कस में बंद करो। जीप में लदे ढेरों उत्साही नौजवान अपने सुंदरतम कपड़ों, चश्मों और टोपियों में सजे वहां आते और टोपी के नीचे अपनी अक्ल छिपा बैठते। पंछियों-जानवरों को देखते ही जोर से शोर का तूफान उठता – ई देखो, वो वो!!! ये… याहू… के नारे लगते। सोचिए, पक्षियों का क्या हाल होता होगा! पक्षी तो पक्षी, बेचारे जानवर भी जान बचाके भागते। एक हठी ने हमारे सामने एक हाथी परिवार को खदेड़ दिया। वो हाथी के बच्चे की तस्वीर कुछ ज्यादा ही नजदीक से लेने चल पड़ा था… अब छेड़ने पर तो लड़की भी तमाचा जड़ती है, (जो नहीं जड़ती, उसे जड़ना चाहिए) वो तो हाथी है…



किसी जगह, किसी देश, किसी घर की पहचान वहां की इमारत से नहीं, लोगों से होती है। जैसे – कपड़े अच्छे थोड़े ही होते हैं, अच्छा तो आदमी होता हैं। अब कोई पूछे – कैसे थे वहां के लोग, तो मैं कहूंगी – वो इंसान थे। अनजान लोग भी मुझे प्यार से खिलाते, चाय पिलाते, तामोली (सुपारी) पेश करते। जुमोली नाम की एक लड़की ने सुरों-सी सुरीली, मिठाई से मीठी आवाज में असमिया गीत सुनाये और हाथ से बनी वहां की पोशाक भी भेंट की। रिश्ता? हम दोनों इंसान थे। वो मुझसे हिंदी में बात करने की कोशिश करते-करते अचानक असमिया बोलने लगती। बतियाते-बतियाते बहुत देर में याद आता कि ये मुझे समझ ही नहीं आ रहा होगा।

दिल-तमिल-हिंदी-दोस्ती

इस बात से एक बात और निकली है – बहुत साल पहले एक पांच साल का तमिलियन बच्चा मुझे मिला। वो देखते ही मुझसे चिपक गया और सुबह से लेके देर रात तक लगातार हम दोनों बात करते रहे।

मुश्किल से सोया, अगली सुबह फिर गप्पें शुरू। हमने घंटों, बल्कि कई दिनों बात की। मेरी उम्र 20 साल थी, उसकी पांच साल… उसे हिंदी नहीं आती थी मुझे तमिल। और अंग्रेजों की अंग्रेजी से तो खैर, हम दोनों ही महरूम थे। हां, हमें जो भी देखता, यही सोचता कि बेस्ट फ्रेंड्स हैं। सही है न! प्यार की बात होंठों से नहीं, आंखों से बयां होती है। वहां एक दिन खाना न खाओ, तब तो खैर लोग चिंता से आपको पलकों पर उठा लेंगे। कम खाओ तो पांच बार पूछेंगे – क्या बात है? पसंद नहीं आया, क्या खाओगे, कुछ और लाएं, तबियत ठीक नहीं?

यहां कुछ और भी लोग मुझे मिले। व्यापार की बागडोर यहां भी मारवाड़ियों के हाथ थी। पूरी-भाजी खिलाते एक मारवाड़ी को जब पता चला कि मैं जयपुर की हूं, तब उसने पूरी तसल्ली से सारी तफसील ली। फिर कहा – जहां सूरज नहीं पहुंचता, वहां भी मारवाड़ी काम करने जाता है। सच है, सूखे-रेतीले इलाकों के ये लोग दुनिया में दूर-दूर तक फैले हैं।

हैरानी की बात है, पर है कि वहां गाय हैं, भैंस हैं, घास भी है पर दूध नहीं है। 55 रुपये किलो दूध अमीर लोग बस बच्चों के लिए खरीदते हैं। खुद सुबह-शाम घर पर बनी चावल की ताजा सुगंधित बीयर पीते हैं और चाय काली नहीं, लाल पीते हैं। खैर, हमने वहां चाय की एक खूबसूरत थड़ी ढूंढ़ निकाली, जहां ताजे दूध की गर्म चाय की मीठी चुस्की ली जा सकती थी। अब जहां चाय होगी, वहां बात भी होगी। कॉलेज के कुछ लड़के-लडकियां वहां जमे गप्पें मार रहे थे। इतने में मैंने फोन पर शिलॉन्ग घूम आने की बात कही और वो वहीं से आ रहे थे। वो मेरे गाइड बन बैठे। इतने में उनका फोन बजा। पता लगा – वो जयपुर जा रहे हैं, सो मैं उनकी गाइड बन गयी और हम हंसे – दुनिया कितनी छोटी है न… है न?

तीस मार खां और घरेलू टाइगर

और हां, जंगल में बस जानवर ही नहीं मिलते, कुछ तीस मार खां भी मिलते हैं। जब हम आये, तब पता चला – एक और फोटोग्राफर आ रहे हैं। अब नाम नहीं बताऊंगी। कुछ दिन बाद एक सनकी से बुजुर्ग मिले। मुझे देखकर पूछा – आपको कहीं तास्केर दिखा? मैं उसकी तलाश में हूं। अपने कार्ड थमाते हुए बोले कि वो कितने बड़े फोटोग्राफर हैं और साक्षात अपने एलबम के साथ पधारे हैं। एलबम में जंगल की दुनिया की ऐसी नायाब तस्वीरें हैं, जैसी न आज तक बड़े-बड़े टीवी चैनल्स पर देखने को मिलती हैं, न मैगजींस में… वो अपनी खींची तस्वीरें किसी को दे ही नहीं सकते… हां! हम देखना चाहें तो जरूर दिखाएंगे।

उनके पास एक छोटा-सा कैमरा था, इतना छोटा कि हमारा बड़ा-सा लेंस शरमा जाए और वो बार-बार कह रहे थे – असली जंगली टाइगर की तस्वीरें हैं। ठीक है फोटोग्राफर साहब, लेकिन पालतू टाइगर भी होता है क्या? आवाज में दंभ का, दंभ में तंज का झोंका था कि आओ बच्ची! देखो, असली काम क्या होता है और कहते हुए उन्होंने वहां जितने लोग थे, सब को अपने कार्ड थमा दिये।

कुछ दिन बाद मैं अपने गार्ड अनिल दा से बतिया रही थी, तो उन्होंने बताया – एक पागल फोटोग्राफर आया था। यूं तो, सारे फोटोग्राफर्स टोपी वाले और आधे पागल होते हैं (ये मेरा कमेंट नहीं है) पर ये थोड़ा ज्यादा था। छोटा सा कैमरा लेकर जंगल में घुसता चला जाता और मैं कुछ कहता तो डांटता – अरे! हमने इतनी तस्वीरें खींची हैं टाइगर की। मुझे शक हुआ – ये वही तो नहीं थे तीस मार खां साहब! इतने में अनिल दा ने उनका कार्ड दिखाते हुए कहा – इतने लोगों को बांटता है ये कार्ड, मुझे तो डर है कि जानवरों को भी बांट दिया होगा।

कार्ड देखते ही मैं मुस्करायी – अरे! ठीक है, लेकिन एलबम देखे क्या? और उनके मुंह से ऐसे फूटा, जैसे आत्मा का बोझ हलका कर रहे हों – अरे बहुत ही बुरी थी।

सो, ऐसे बड़े-बड़े शेरखान भी जंगल में खूब मिले। फोटोग्राफर्स की बात चली है, तो एक बात और बता दूं। कुछ फोटो देखे, एक मरती हुई रायनो के, जिसके साथ बल्कि उसे छूते हुए सबने फोटो खिंचवायी थी। पता चला – मीटिंग (मिलन) के दौरान उस 2000 किलो के जानवर की मजबूत पीठ की हड्डी टूट गयी और भयानक दर्द सहते हुए उसने अपना सिर पटक-पटक कर आत्महत्या की। हां, जंगल में अमंगल भी होता है। पहले तो मैं नाराज हुई – मरती हुई रायनो को छूकर परेशान किया… चैन से मरने तो देते, लेकिन भोला-सा जवाब मिला – इसके अलावा हम कभी जिंदा रायनो को नहीं छू सकते थे। मैं होती तब, तो क्या करती? क्या रायनो के इतने करीब उसे छूने का मोह या लोभ छोड़ पाती? न! सहलाती जरूर…

पिघलता सूरज और बर्फ की रगों में शामिल होने की बेकरारी

लौटते हुए हिमालय की चोटियां दिख रही थीं, जैसे – बर्फ की सिल्लियां जोड़-जोड़कर बनाया हो और उस बर्फ पर गर्मागर्म सूरज पिघल-पिघल कर टपक रहा था। जैसे – सूरज का लाल बासंती रंग बर्फ की रगों में शामिल हो जाने को बेकरार हो उसमें तैर जाना चाहता हो। इस बेमिसाल मिलन की जद्दोजहद में कुछ और रंग भी फूट रहे थे।



जंगल पीछे, बहुत पीछे छूटता जा रहा था। ट्रेन के सफर में धीरे-धीरे बदलते हैं रास्ते के मंजर। रास्ते का हर पड़ाव मंजिल की और जाने का एक मकाम होता है लेकिन यहां तो दो घंटे के भीतर हजार सदियों का वक्फा बीत गया हो जैसे। लगा मुझे किसी टाइम मशीन में डालकर अचानक कहीं आगे, किसी बहुत नये अनजान समय में पटक दिया गया हो।

मैंने महसूस किया बहुत-बहुत तेजी से अपने अंदर घूमते पहिये को। इतना तेज कि लगा बहुत कट-पिट गयी हूं। थोड़े ही समय में मैं कह रही थी – उफ़! क्यों आयी मैं इस परेशानियों के शहर में। बेतरतीब घरों के बारे में अक्सर कहा जाता है न – घर को जंगल बना रखा है और बेतरतीब इंसानों को जंगली, लेकिन बहुत नाइंसाफी की है हमारी आदमजात ने जंगल को यूं बदनाम करके। नहीं, जंगल की फितरत जंगली नहीं, इसके मायने वहशी नहीं, बदमिजाज, बेलिहाज नहीं। हमारे घर, अपने शहर बिखरे भी हैं, बेतरतीब भी। यहां तारों से नहीं, धुएं से, इमारतों से ढंका आकाश हमें मिलता है, जरा सी बारिश पर धरती से बू उठा करती है, सोंधी-गीली खुशबू नहीं। जंगल एकदम करीने से सजा है। इंसानों ने बड़े मन से संवारा हो जैसे। सब चीज ठीक-ठीक जगह पर है, एकदम वहीं जहां होनी चाहिए। पक्षी डालों पर हैं, बिजली के तारों पर नहीं। मछली लहरों में खिलखिलाती हैं कांच के मर्तबान में नहीं। जंगल में हर ओर बिखरी फलियां देखी, पक्षियों की खाई, सूखी फली के बीज वाला हिस्सा ठीक गोलाकार छीलकर खाया गया था। इतने करीने से न आदमी खा पाये, न आदमी की बनायी मशीन। जब किसी को अच्छा कहना होता है, तब हम कहते हैं – वो इन्सान है, आप शौक से मुझे जंगली कह सकते हैं।

मेरे दिल में कहीं जंगल बसता है…

यूं, मुझे हमेशा से गुमान था कि मेरे दिल के एक कोने में कहां जंगल बसता है। मैं थोड़ी-सी तो जंगली हूं, लेकिन अब लगता है – मेरे भीतर दरअसल वही पूरी की पूरी सभ्यता है। मैं उसी समय, उसी जगह की हूं, इतनी जुड़ी हूं कि खुद को खुरच के भी उसे निकाल नहीं पाऊंगी। आप कभी जंगल जाएं तो खाली होके जाइएगा। जो खुद भरे रहे, तो जंगल को कहां जगह दे पाएंगे और हो सके तो अकेले जाइए।

जब हम अपने सबसे अच्छे मित्रों के साथ जाते हैं, तब अपनी एक बनी-बनायी दुनिया साथ ले जाते हैं। दिल का एक कोना हमेशा भरा ही रहता है, अरे जब वो खाली होगा, तभी तो अजनबी भी दोस्त बन पाएंगे।

और हां, जंगल में विचरते हुए खामोशी से जाएं, तब ही तो उसकी धुन सुनाई देगी। कभी-कभी खामोशियां भी बहुत कुछ कहती हैं। भोर के पंछियों की आवाजें, धरती पर बारिश की सरगोशियां, उड़ती हवाएं सुनना… सब आपके मन से बात करेंगे और तब आप भी अपनी आवाज सुन पाएंगे, वो आवाज जो शायद बरसों से न सुन पाये हों।

यूं, आज मुझे लगता है, मैं जंगल की ही हूं। मैं जंगल में अकेले विचर पाती हूं। जंगल से अपनी कहानी कह पाती हूं। उसे दिनों-दिन सुन पाती हूं। लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी। हम जो कुछ भी होते हैं, उसके पीछे ढेरों लोगों का प्यार साथ होता है। जो हमें वो बनाते हैं, जो हम हैं। मैंने जंगल में जाने की तमीज अपने पापा से पायी है। बचपन में वो अपनी साइकिल के आगे बिठाकर मुझे जंगल घुमाने ले जाते। मैं शोर मचाती, तो प्यार से कहते – “श्ह्ह्ह ये तुम्हारा घर नहीं है। हम पंछियों के घर में हैं। दूसरों के घर शोर नहीं मचाते।”

छुटपन में भरतपुर, रणथंबौर जैसे जंगलों में पापा के साथ खूब घूमी। बड़े होकर ढेर सारे प्रोफेशनल बर्ड वाचर्स से मिली। लेकिन एक के भी साथ जंगल घूमने का वो मजा नहीं आया। वो लोग एक बर्ड डिक्शनरी की तरह लगते और पापा की बातें पंछियों की आत्मकथा-सी होतीं। पंछी देखते हुए उनका चेहरा बच्चे सा खिलता। खुशनुमा हो जाता। फिर वो बताना शुरू करते। फिर मैं बड़ी हो गयी और मैंने अपने आप, अपनी पसंद की जिंदगी चुननी शुरू की। घूमी। पढ़ा। सुना। देखा। जंगल कुछ देर को कहीं पीछे रह गया।

बड़े होने की एक निशानी मुझे गुस्सा भी खूब आने लगा था। मैं अक्सर पापा के निश्छल चेहरे को देख के पूछती, “पापा आपको गुस्सा क्यों नहीं आता है?” और वो हमेशा कहते, “क्यूंकि मैं जंगलों में घूमा हूं। वहां आदमी सुनना सीखता है, देखना सीखता है”। शायद मेरे हाथ से जंगल कहीं छूट गया था, अब फिर मैंने उसे भागकर पा लिया है। इस बार गयी, तो पतझड़ था, फिर भी जंगल खूब गुलजार था। मन है – अबके बहार में जाऊं, बरसात में जाऊं। ये पेड़, ये पहाड़ियां मन करता है, हर एक को देख और छू आऊं, पूरी धरती को कदमो से सहलाऊं, हर इंसान, हर पक्षी, हर जानवर, हर पंछी, हर फूल, हर कांटे से बतियाऊं। मेरा ये स्वप्न पूरा होगा न?

2 comments:

Arvind Das said...

हेलो निधि, शुक्रिया मेरे आलेख पर टिप्पणी के लिए. मैंने आपका लिखा यात्रा वृत्तांत, डायरी, नोट बुक के पन्ने, रेखाचित्र, संस्मरण (जंगल जंगल बात चली है...) मोहल्ला लाइव पर पढ़ा था. माफ़ी चाहूँगा कि मैंने तब कोई कमेंट नहीं दिया था. बेहद पठनीय और रोचक है. एक बाधा या वेब की सीमा कह लें लेख का लंबा होना है. नज़र वहाँ लंबे समय तक टिकती नहीं..किस्तों में पढ़ना पड़ता है. लेकिन जब हम इसे छपे अक्षरों में पढ़ेंगे तो फिर यह सीमा हमें पसंद आएगी. इसे कहीं प्रकाशित करवाएँ. हिंदी में अभी भी फिक्शन के इतर इन विधाओं का सर्वथा अभाव है..शुभकामनाएँ!

matukjuli said...

mohalla per apka lekh padha . wahin se blog ka pata chala. mohalla wale lekh ko padhkar hi mugdh ho gayee thi. ab der tak apke saath jangal ko mahsoosne ka irada hai. mujhe apki dosti bahut achchi lagegi. sayad aapne mujhe tv per dekha hoga. main juli hoon. hamare blog matukjuli.blogspot.com per aap mujhe kuch aur jaan sakti hain. asha hai mujhe naa nahi sunne ko nahi milegi. pranam.