Tuesday, February 21, 2012

पचास साल से जगमगाता है एक तारा


जनसत्ता में छपा मेरा लेख,यंहा साभार ...

अंधेरे और आंसुओं का रिश्ता पुराना है न? एक पूरी दोपहर थिएटर के अंधेरे में एक फ़िल्म मुझे रुलाती रही, पल भर को नहीं हंसाया, फिर भी मेरी पसंदीदा हो गई। फ़िल्म थी--मेघे ढाका तारा।
इस बरस मेरी पसंदीदा फ़िल्म की उम्र 50 पार हो गई। देशी-विदेशी कई फ़िल्मी उत्सव इसके 50 साल होने का जश्न मना रहे हैं...मेघे ढाका तारा को याद किया तो ख़याल आया--इंसान की उम्र कितनी है? जितनी वो जी ले...और जो न जी पाए, वो मौत। और ऐसा नहीं होता कि हम अंत में ही मरें! जीते जी न जाने कितनी बार मरते हैं और फिर ज़िंदा होते हैं। ता-उम्र ये जिंदगी बड़ी लुका-छिपी खेलती है न! और कभी-कभी जब हाथ आती है, बीत जाती है।
इतनी उदासी भरी बातें! मेघे ढाका तारा की नायिका नीता की ज़िंदगी ही ऐसी थी, खूब उदास कर गई और मन क्या, चेहरा तक भिगो गई। घर भर से अलग अपने कमरे के जहां में चोरी-चोरी प्रेमी का ख़त पढ़ते हुए नीता की ख़ुशी उसकी आंखों से झांकती है। फिर प्रेमी लिखता है--तुम मेरा बादलों में छिपा तारा हो और नीता की आंखों से शर्मा कर झांकती हंसी चेहरे के सब दरवाज़े पलटकर नीता पर बिछ जाती है और उसके होंठों पर, आंखों में ज़िंदगी की हर बहार, हर ख़ुशी नाचने लगती है।
...लेकिन अब मेरा दिल करता है, काश ये नीता इसी वक्त पलट जाए और कहे--सुनो तुम्हारी ये चाल नहीं चलेगी। मैं अब और बादलों से ढकी नहीं रहूंगी और कम से कम ये सुन खुश तो बिलकुल ही नही होऊंगी कि मैं बादलों से ढका मद्धम कोई तारा हूं और जो ये सुनूंगी तो सवाल करूंगी--तुमसे और खुद से भी कि क्यों हूं मैं छिपी-ढकी और अगर हूं, तब ऐसे खुश क्यों हूं? मैं क्यों नहीं हूं उजाले का पूरा चमकदार सूरज। काश नीता तभी कहती--नहीं, मैं नहीं हूं मेघे ढाका तारा। मैं तो उजाले का पूरा चमकता सूरज बनूंगी...आकाश पर राज करता सूरज।
लेकिन नीता नहीं पलटी और बाकी सभी ने उसके बादलों में छिपे होने की तारीफ की और फायदे में भी रहे। नीता को आसमानी देवी बना दिया और खुद ज़मीनी इंसान रहे। अब देवी की तो कोई भौतिकी होती नहीं तो भौतिक लालसाएं कैसी और इंसान तो लालचों से ही पगा है...।
नीता कमाती रही और अपनी टूटी चप्पलें पैर में, पैबंद लगी साड़ी मुस्कुराहट में छिपाती रही, तो कमाई का क्या करती थी नीता? अरे--पिता को घर बनवाना है, मां को घर ठीक से चलाना है, बहन को गहने चाहिए, छोटे भाई को खेल वाले खास नए जूते, प्रेमी को कॉलेज की फीस और बड़े भाई को तो दाढ़ी बनाने तक के पैसे और नीता को? नहीं--नीता को कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि नीता महान भारतीय मां की जीवंत मूरत जो है। अब मां की तो सब इच्छाएं बच्चों के ही लिए होती हैं न! और जिस मां की इच्छाएं अपने लिए रह जाती हैं, वो भी कभी महान हुई है भला? नीता सबको पालने ही के लिए जन्मी थी और सब पलते रहे।
आखिर तक आते-आते अब नीता प्रेम पत्र की तरह अपने क्षय रोग को छिपा रही है, फिर अकेला कमरा...सेनिटोरियम की ख़ामोशियों में फिर वही पत्र पढ़ते, लेकिन इस बार उसने वो पत्र उड़ा दिया और ये क्या--वो रो पड़ी और ऐसा वैसा नहीं, ऐसी रोई कि पूरी प्रकृति उसके क्रंदन से विचलित उसके साथ चीख रही है और चीख चीख कर कह रही है--मुझे मेघे ढाका तारा नहीं होना, मुझे मेघे ढाका तारा नहीं होना, मैं जीना चाहती हूं...।
यूं, वो समय खूबसूरत फिल्मों के सच्चे किरदारों का था, भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग था। पथेर पांचाली और भुवन सोम जैसी फ़िल्में आकार ले रही थीं और सब में महिलाएं थीं, वास्तविक महिलाएं, लेकिन ये वो पहली फ़िल्म थी, जिसने स्त्री की भीतरी जद्दोजहद की बात रखी। बाकी फ़िल्मों में स्त्री घर का, समाज का हिस्सा थीं और ये फ़िल्म स्त्री के समाज, स्त्री होने के संघर्ष और स्त्री के अन्दर-बाहर की दुनिया बयां कर रही थी। एक नहीं, तीन स्त्रियां--मां, बहन और नीता। तीनों के तीन स्वभाव, तीन स्वभावों के तीन तरह के संघर्ष।
आप ये न मान लीजियेगा कि ये फ़िल्म किसी रोती-बिसूरती दबी-कुचली नायिका की कहानी थी, ये कहानी थी--स्त्री के प्रति खेली चालों की। एक सजग समर्थ स्त्री अपनी संवेदनशीलता में कैसे इन चालों का मोहरा बनती है। ये फ़िल्म स्त्री की भौतिक, दूसरों की उपजी गुलामी नहीं, गुलाम मन की कहानी थी, जिसमें उसके सपने तक अपने नहीं, उन्हें वो अपने लिए नहीं देख पाती। बाकियों के बड़े-ऊंचे सपने पूरा करना ही उसके अपने सपने हैं।
एक पूरी पीढ़ी आर्थिक आत्मनिर्भरता से उपजे आत्सम्मान का स्वाद नहीं पा सकी। उसका कमाया धन उसके लिए कोई मुक्ति, उन्मुक्तता, स्वावलंबन नहीं ला पाया, बल्कि वो नीता की तरह घर और बाहर, दोनों ही जगह कामों में पिस गई। उनके कमाए धन को या तो हालात की मज़बूरी का नाम दिया गया या फिर अवांछित मान लिया गया, लेकिन उनकी कमाई धनराशि कभी भी सम्मान का गौरवपूर्ण पद नहीं पा पाई।
मेरी मां की सहेली के पति ने शर्त रखी थी--तुम नौकरी तो कर लो, लेकिन तनख्वाह नहीं लोगी, आर्थिक ज़िम्मेदारी मेरी है। मुझे लगेगा--मैं ठीक से नहीं निभा रहा हूं, जो तुम्हें नौकरी करनी पड़ी। मेरी एक मित्र कहती थी कि नौकरी करके घर जाओ, तब सब ऐसे घूर रहे होते हैं, जैसे--कोई अपराध करके लौटे हैं। अपने मूल काम से इतनी देर गैरहाजिर जो रहे, सो मैं सीधे रसोई में घुस जाती हूं।
देखिए, हो गए न फ़िल्म को 50 साल! अपने समाज की, परिवार की कहानी ही तो मेघे ढाका तारा कह रही है। यूं, ऋत्विक घटक की हर फ़िल्म के साथ अन्याय हुआ। उन्हें या तो कभी डॉक्यूमेंट्री कह कर, कभी मेलोड्रामा कह कर नकारा गया, लेकिन ऋत्विक की मृत्यु के बाद उन्हें विश्व के सबसे महान निर्देशकों की पंक्ति में बिठा दिया गया और उनकी फ़िल्में विश्व की सबसे ज़रूरी फ़िल्मों में से एक हो गईं।
मेघे ढाका तारा इसलिए भी ज़रूरी है, क्यूंकि नीता यही नहीं, नीता वो भी है, जो उसे दया पात्र बनाते नायक से कहती है--कोई बात नहीं, ये मेरी ही गलतियों की सज़ा है, जो मुझे मिल रही है।
तुमने क्या गलती की का वो जवाब देती है--मैंने विरोध नही किया।
ये फ़िल्म देखते हुए मुझे लगा--मैं आईना देख रही हूं। मेरी मां की कहानी परदे पर फ़िल्म बनकर चल रही है शायद, नानी की या मेरी...और मन कर रहा था--ये कहानी बदल जाए, किसी सूरत में ये हालात बदल जाएं। मैंने सैकड़ों बार बोला--मैं मेघे ढाका तारा नहीं होऊंगी।
मैं तो ये कह रही थी, लेकिन तभी फ़िल्म में ठीक नीता-सी एक और लड़की, नीता के आने के पुराने रस्ते से टूटी चप्पल में लंगड़ाती, अंगूठों के बीच चप्पल संभालती निकली।
आप भी ये फ़िल्म देखिए, आपको इसमें अपनी या किसी अपने की सूरतें नज़र आएंगी और, और इच्छा होगी, दिल कसमसाएगा कि नीता जिए, नीता के बाद किसी और लड़की की ज़िंदगी की राह में वो रास्ता न आए। हमारी दुनिया का ये सूरते हाल बदल जाए।
मैं हॉल से बाहर आई शाम हो चुकी थी और देखते, न देखते बादल घिर आए, फिर झमाझम जो बूंदें दमादम बरसीं...सितारों पर छाए सब बादल छंट गए। मैं खूब भीगी! उस शाम इतने बादल कैसे बरसे? शायद, आकाश के हर एक तारे ने चमकना, दिखना चाहा होगा...तो हालत कैसे बदलेंगे? हम भी अपने-अपने हिस्से का जोर लगाएंगे, हम मेघे ढाका तारा नहीं होंगे।
तो जिंदगी की उम्र कितनी है? जितनी है, पूरी जी लें।

Thursday, October 21, 2010

अपने-अपने हिस्से का सच : रोशोमन


भास्कर की पत्रिका अहा ज़िन्दगी में चल रहे अपने कॉलम ग्लोबल चलचित्र से

क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ, किसी मुद्दे पर आप सच कह रहे हों, सामने वाला भी और दोनों बातें सिरे से अलग हों? सच निरपेक्ष नहीं है, कोई शाश्वत सत्य नहीं होता, सब का अपना-अपना जीवन, अपनी परिस्थितियां हैं, अपने विश्वास, मान्यताएं और हर एक का अपना सच भी। महान जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसोवा ने इसी बात की डोर पकड़ एक ख़ूबसूरत फ़िल्म बुन दी--रोशोमन, जिसने पूरी दुनिया में चमत्कारिक सराहना के परचम ही नहीं लहलहाए, अपनी फ़िल्मों पर अकड़े पश्चिम ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तबाह जापान की संस्कृति को गर्दन झुका के, घुमा के गौर से देखा। समुराई पृष्ठभूमि के अकिरा कुरोसोवा का फ़िल्मों में प्रवेश आकस्मिक ही था। वे तो चित्रकार बनना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों ने पहले जीने की जद्दोजहद का इंतज़ाम करने की मांग की और वे 1936 में फ़िल्मों के सहायक निर्देशक हो गए।
1943 में उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म आई--जुडो सागा, फिर कई श्रेणियों की फ़िल्में बनाने के बाद रोशोमन, जो अकेले ही कुरोसावा को विश्व के महान निर्देशकों की पहली पंक्ति में बिठाने के लिए काफी थी। इसके बाद सेवेन समुराई, इकिरू, माद्योदा जैसी कितनी ही फ़िल्में दुनिया के सामने मील का पत्थर बनकर आईं। 1950 में रजत पट पर आई रोशोमन। जापानी लोककथा-लोक नाट्य शैली की सुगंध लिए यह पहली फ़िल्म थी, जिसने दुनिया को जापान की संस्कृति और कला के बारे में चेताया। यूं तो, रोशोमन एक मर्डर मिस्ट्री कही जा सकती है, लेकिन वह तो बस कहानी का गुंथाव है, जिसके सहारे जीवन के कई दार्शनिक सवालों की गुत्थी तक फ़िल्म पहुंची।
एक दोपहर कब्र पर एकत्र लकड़हारा, पादरी और एक व्यक्ति किसी सत्य घटना की किस्सागोई करते हैं। न जाने कितनी कहानियाँ जंगल के सुनसान राहों पर भटकती बनती हैं जंगल और कहानी का रिश्ता पुराना है इस किस्से में भी ...जंगली रास्तों से गुजरते एक समुराई दम्पति हैं और डाकू भी । नव दंपति को रास्ते में डाकू लूट लेते हैं। समुराई का क़त्ल किया जाता है और पत्नी का बलात्कार। जिस तलवार से समुराई का कत्ल हुआ है, वह गायब। अदालत में घटना के चार गवाह हैं--डाकू, विवाहिता, समुराई की आत्मा और घटनास्थल पर मौजूद एक लकड़हारा।
डाकू के हिसाब से समुराई को उसने द्वंद्वयुद्ध में हराकर मारा और जाने वो कीमती तलवार वहां कैसे छूट गई, विवाहिता के हिसाब से उसने बलत्कृत होने के बाद शर्मसार हो खुद को उस तलवार से मारना चाहा, लेकिन तलवार हाथ में लिए-लिए ही वो बेहोश हो गई और जब जगी, तब समुराई मृत था और तलवार जाने कहां! समुराई एक माध्यम से अपना बयान देता है कि बलत्कृत होने के बाद डाकू के साथ चलने की प्रस्तुति पर उसकी पत्नी ने कहा कि वो डाकू के साथ चलने को तैयार है, यदि वो समुराई का कत्ल कर दे। यह सब सुन समुराई ने खुद ही अपनी तलवार से खुद को मार डाला पर उसे यह नहीं पता कि उसके मरने के बाद तलवार किसने उठाई। अब लकड़हारा अदालत को बताता है कि समुराई की कहानी झूठी है। दरअसल, डाकू ने स्त्री से विवाह की भीख मांगी, जिसके लिए स्त्री राज़ी नहीं थी। तय हुआ कि दोनों मर्द स्त्री का प्यार जीतने के लिए द्वंद्व करें, लेकिन समुराई स्त्री की खातिर लड़ना चाहता ही नहीं था, फिर भी वे लड़े। लड़ाई के दौरान पत्नी बेहोश हो गई। डाकू की जीत हुई, लेकिन स्त्री भाग गई और वह विजित तलवार लेकर चला गया। अंत में पता चलता है कि तलवार की चोरी लकड़हारे ने की थी और सभी अपने-अपने बचाव, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के कारण अपने मतलब से गढ़ी हुई कहानियां सुना रहे थे।26 दिसंबर, 1951 को रिलीज़ इस फिल्म ने सात अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते, जिसमें से एक सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म के लिए मिला ऑस्कर भी शामिल है।
मैं एक सच की बात कहूं? सच! ये फ़िल्म सच्ची क्लासिक है, जो हर जीवन की गुत्थी में जवाब बन कर शामिल है।

Wednesday, October 13, 2010

वह किरदार मुझमें बस्ता है ...


आहा जिंदगी के सितम्बर अंक में मेरा लेख

सर्दी लग रही है...बहुत, मैंने सोचा भी नहीं था कि अपने देश में इतनी
सर्दी होगी। आदत नहीं रह गई है ना! दोस्तोव्यस्की की बौड़म के प्रिंस से
मेरी पहली मुलाकात ट्रेन में हुई। ठीक वैसे ही, जैसे पंद्रह साल की किसी
लड़की से नायक की मुलाकात होनी भी चाहिए। नवंबर के अंत में सवेरे जब
रोशनी नमी और कोहरे में डूबी हो, कुछ गज की दूरी पर भी किसी को पहचानना
मुश्किल हो, रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे के डिब्बे की खिड़की से चेहरा सटाए
26-27 साल का घने सुनहरे बालों, छोटी-सी नुकीली दाढ़ी, धंसे गालों और
बड़ी-बड़ी नीली, बींधती हुई आंखों वाला प्रिंस मिशिकन बैठा था। स्पष्ट था
कि नवंबर की भीगी-भीगी रात का उसे पूरा मज़ा मिल चुका था और उसके तीखे
नाक-नक्श नीले पड़े थे। हाथों में छोटी-सी पोटली झूल रही थी, जो उसका
सर्वस्व थी। मेरा और दोस्तोव्यस्की का ये भोला-भोला नायक ट्रेन के उस
डिब्बे में खास तरह के लोगों से घिरा बैठा था, जो दुनिया के हर बड़े
आदमी और खासकर बड़ी औरतों से कैसे ना कैसे संबंध होने और उनके गुप्त राज़
जानने का दावा करते हैं और बड़ी अजीब मुद्रा में खाज मिटाते हुए हंसते
हैं। हमारा प्रिंस इन लोगों को बड़े आराम से बता रहा था कि वह लगातार
पांच साल से मिर्गी का इलाज करा रहा था और लगभग बौड़म रह चुका था। लगातार
उन लोगों की हंसी के व्यंग्य भरे फव्वारे के बीच हमारा प्रिंस भी अपने
बौड़मपने पर खुद भी मासूमियत से हंस पड़ा।
हां, ये अजीब लग सकता है—खुद पर हंस पड़ना, वो भी तब, जब कई-कई लोग आपको
घेरे आपकी चीराफाड़ी कर रहे हों, लेकिन यही तो मेरा नायक है। मेरा और
दोस्तोव्यस्की का भी। साहित्य में कहते हैं न, `वह महान पात्र आज भी
सामयिक है।‘ मैं कहती हूं—नहीं, वो इस सदी का लड़का नहीं है। हमारे समय
में प्रिंस मिशिकन जैसे लड़के होते ही नही हैं। आपको अपने हर ओर
दोस्तोव्यस्की के उपन्यास बौड़म के पात्र अपनी सारी चारित्रिक विशेषताओं
के साथ मिल जाएंगे, बस—एक प्रिंस मिशिकन नहीं मिलेगा। मैंने बौड़म पढ़ा
और प्रिंस को पसंद करने लगी, तब से हमेशा के लिए। पहली बार में तो मैं
खुद समझ नहीं पाई कि क्यों मैं एक शर्मीले, कुछ-कुछ बचकाने, बेतरतीब और
बीमार प्रिन्स पर इस कदर फ़िदा हो रही हूं, जबकि नायक तो एक मज़बूत
किरदार होता है, जो सफल होता है। पता है जबकि, ये है जो, न जीतता है, न
जीतना चहता है। ये क्यों मुझे लुभा रहा है? तब मैंने दुबारा बौड़म पढ़ी।
प्रिंस मिशिकन को फिर से छूकर गुजरने के लिए।
एक बच्चा है, जिसके कपड़ों का नाप बढ़ गया है और बच्चे-सी ही साफ़, साहसी
नज़र है, जो न केवल लोगों को पहचान सकती है, अपनी साफ़गोई से उन्हें भेद
भी सकती है। कभी वो मुझे एक ऐसा राजकुमार लगता, जो अपनी विनम्रता में
संन्यास लिए है और लोग उसे प्यादा समझे बैठे हैं। कभी लगता—ये क्यों खड़ा
नही होता? इसको कभी भी, कोई भी मुंह पर मसखरा और बौड़म कहकर हंसने लगता
है। एक बेवकूफ सज्जन को धोखा देकर लोग कितने खुश हो जाते हैं। प्रिंस
उनकी हंसी के लिए पात्र बनता है और उसका दया से भरा मन कहता है—`नहीं!
इनके बारे में फैसला करने में इतनी बेरहमी न करूं। ईश्वर जानता है, इन
कमज़ोर और शराबी दिलों में क्या-क्या बसा हुआ है।‘
संशय और असुरक्षा में जीते लोगों को सहने और माफ़ करने की क्षमता है
प्रिंस के साहसी और सच्चे दिल में। उसमें अपनी एक चेतना है, जो किसी के,
कुछ भी कहने से बेचैन हो कर डिगती नहीं है। उसमें रीढ की हड्डी है, लेकिन
आजकल अनिवार्य सी हो गई सेल्फिशनेस और अभिमान नहीं। वह दूसरों की ख़ुशी
के लिए खुद भी, खुद पर हंस सकता है। कितनी बड़ी बात है, न किसी अजनबी के
सामने भी यूं खुद पे हंस पड़ना? मैं अपनी हंसी नहीं उड़ा सकती। मैं तो
नाराज़ हो जाऊंगी। हमारे मन उतने निर्मल थोड़े ही हैं...हमारे दिलो में
तो कई बार दूसरो की हंसी चुभा भी करती है। प्रिंस...जिसे हर आदमी बौड़म
समझता है और धोखा तक देता है। तब हर बार लगता है—उफ़! ऐसे भोले आदमी को
छलते शर्म नहीं आती। लोगों को प्रिंस प्रेम करता है, लेकिन दिल को वस्तु
समझ हक़ नही जताता। प्रेमिका के सुख में उल्लसित और दुःख में व्यथा झेलता
है। किसी की प्रेमिका छोड़ कर चली जाए, तब लोग दिल में नहीं, अहम पर चोट
खाकर तिलमिलाते हैं और प्रिंस प्रेमिका की किसी और से शादी होने पर भी
ख़ुशी में आंखें भिगो सकता है। वह समझ और विश्वास का साथी है, अहंकार का
नहीं। उसकी सबसे ख़ास बात है उसका वो विश्वास कि औरत बेहया हो ही
नहीं सकती और नस्तास्या जब गंभीर निराशा में फंसी, दूसरों की खिल्ली
उड़ा रही है, तब वह नस्तास्या को डांट कर कहता है—"आप को शर्म तो
नहीं आती ? क्या आप ऐसी ही हैं. जैसी आप अपने आप को जता रही
हैं?"
और नस्तास्या विनम्रता से लौट जाती है। ये एक पुकार थी गंभीर
और असली पुकार, जो लोगों को जगा सकती है। बहुत दूर से बुला
सकती है...। ना, यहां औरत को पुरुष से सर्टिफिकेट की दरकार नहीं,
उसके हयादार या बेहया होने के बारे में, लेकिन एक साथी, एक
रिश्ते से औरत विश्वास और समझ की उम्मीद करती है। कितनी बड़ी
बात है कि प्रिंस से पहली मुलाकात में ही वह सबकुछ मिलता है।
भोला-भला प्रिंस, जो दौलत, प्रेम, रोमांस के बीच फंस गया है...एक ऐसे
समाज में, जिसमें तमाम भौतिक चीज़ें और इंसान, एकसाथ रहते हैं। यहां
शक्की और ईर्ष्यालु लोगों का जमघट है, जो हर बुराई को ज्यादा से ज्यादा
बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और प्रिंस इन सब से ठीक उलट, किसी की छोटी सी
अच्छाई पर भी खुश हो उसे इज्ज़त से स्वीकारता है। सोसायटी के मंझे हुए,
व्यवहार कुशल खिलाड़ियों के बीच जब उसे अजूबे की तरह देखा जाता है, उनकी
तमीज और तहजीब में उठने बैठने लायक नहीं।
वहां, वही अकेला, एक मौलिक, एक असली इंसान है, जिसके चेहरे और दिल का
आपसी सम्बन्ध अब तक कायम हैं। इस सोसायटी में प्रिंस की बेदखली देखकर
लगता है—जाने इंसान को गरिमा और शालीनता उसका दिल सिखाता है या नाच
सिखाने वाला मास्टर!
नहीं! वह ऐसा इंसान नहीं है, जो आपको ढेर सारे उत्साह और यौवन से भर दे।
तूफ़ान और ताजगी दे, लेकिन आपको उसका साथ अच्छा लगेगा, क्योंकि उसमें एक
सहज, सुन्दर सकारात्मकता है। शीतलता और प्यार है। प्यार बिना किसी नाटक
और दिखावे के। वह धीरे से आता है और ख़ामोशी से आप में शामिल हो जाता
है...मुस्कुराते हुए...शायद इसलिए ही मैं पहली बार में जान भी नहीं पाई
कि ये मुझे क्यों अच्छा लग रहा है...प्रिंस को देखकर मुझे लगता है, जो
जितना अविकसित होता है, वो उतना ही अधिक इंसान होता है। दुनिया की
दुकानदारी में अपने फायदे के सौदे जो नहीं करता। रिश्तों में ताकत के
गणित नहीं बिठाता। शायद प्रिंस की ये सहजता, ये निर्मलता इस ज़माने में
किसी को नाटकीय लगे, लेकिन मुझे लगता है—बहुत पहले, कभी किसी जमाने में,
शायद हर ओर, हर आदमी ऐसा ही हुआ करता होगा।
दोस्तोव्यस्की बरसों से प्रिंस मिशिकन जैसे अच्छे, भोले इंसान का चित्रण
करना चाहते थे, जो सुंदर हो, आदर्श हो। उनके अनुसार, जो आदर्श है और
उसका अभी तक पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। उन्हें भी लगा कि ऐसे पात्र के
चित्रण से कठिन कोई दूसरा काम नहीं। उन्हें सही लगा था—ऐसे पात्र का मिल
जाना कितना कठिन है, मुझसे पूछिए...मैं दस साल से ढूंढ रही हूं, तो ऐसा
ही है हमारा प्रिंस...खुद के मखौल के बीच, खुद पर हंस देने वाला,
दुनियादारी से एकदम अनजान, साफ बल्कि बौड़म!

Monday, April 19, 2010

जंगल जंगल बात चली है...पता चला है…

अब हमारी अदबी जबान में ऐसा कम ही होता है कि यात्राएं संजोयी जाती हों। वैसे भी सजग रूप से लिखने-महसूसने वाले प्रकृति को एक कलावादी दृश्‍यों की तरह लेते हैं। सच बता रहा हूं, ऐसा रिपोर्ताज मैंने इससे पहले कभी पढ़ा – मुझे याद नहीं आता। निधि ने खास तौर पर इसे हमारे लिए लिखा है : ये टिप्पणी है मोहल्ला लाइव. कॉम के मॉडरेटर की। ये लेख वहीं सबसे पहले आया। वहीं से साभार, यहां इस मोड़ से पर पेश है...


इंसान जैसे जानवर, जानवर से इंसान!



पिछले 20 दिनों से मैं सूरज से नहा रही थी, हवा बिछा रही थी, तारे ओढ़ रही थी, चांद सिरहाना था। ये जन्नत का नजारा नजर आता है न? …तो हम सब को जो मालूम है जन्नत की हकीक़त.. फिर क्या कहूं? मैं पानी पर चल रही थी, हवा में गांठ लगा रही थी, अब जो उपमा मन को भाये, वो रख लीजिए, बस सीधे-सीधे कहती हूं, मेरी बात सुन लीजिए, इजाजत है? मेहरबानी!



बड़ा मन कर रहा था बताने का कि पिछले महीने भर मैं जंगल में रही (याहू बता दिया!!!), और वो भी ऐसे-वैसे नहीं… जंगलों में जंगल की हैसियत रखने वाले, जंगलों के राजा काजीरंगा में बिन नाम, बिन पते घूम रही थी। कहीं डगर बदल रही थी, कभी रास्ते भूल रही थी। घर से 3000 किलोमीटर दूर। साथ न दोस्त थे, न परिचित, न साथी। किसी जान-पहचान वाले से दो बात हो जाए, बस दुआ-सलाम या हाल-चाल हो जाने को फोन भी नहीं और सच, कहीं किसी की कोई कमी भी नहीं!

दूर जंगल में बिचरते हुए मैं जंगल-जंगल हुई जा रही थी और वही जंगल मुझे पनाह की सैकड़ो राहों में हजार बाहों से थामे था, जिसे डिस्कवरी वालों ने सनसनीखेज धुनों के साथ मिला-मिला के महाभुतहा साबित कर रखा है! न, मैं उनके काम को खारिज करने की बिसात नहीं रखती, बल्कि उनके लिए मैं अपनी टोपी उतारकर, सर झुका कर कहने को तैयार हूं – हैट्स ऑफ सर!

क्या कमाल की जानकारियां आप हम तक पहुंचाते हैं, लेकिन `ति-ली-ली-ली’ टोपी मैंने पहनी ही नहीं है और मैं हंसते हुए सबको बता रही हूं, जंगल जरा भी सनसनीखेज नहीं, डरावना नहीं। अरे! वहां इंसान जैसे जानवर रहते हैं, आप-हम जैसे जानवर से इंसान थोड़े ही!

जल जाएगी दिल की बुझी रोशनी


न यकीन हो मेरी बात पर, तो मिल आइए, भटक आइए जंगल में कुछ दिन! जो बुझ गयी होगी दिल की भीनी रोशनी, तो सब शमाएं जल उठेंगी। मन के परवाने मस्त हो महकने लगेंगे। सच! वादा रहा, इतने दिन में कभी रहस्यमयी, कंपकपा देने वाली कोई धुन किसी भी लम्हा मेरे अंदर नहीं गूंजी।

हां, आवाजें थीं… जंगल में हर ओर बिखरी हवा की, हवा में तैरते परिंदों की। सरसराहटें थीं उड़ती पत्तियों की, लहलहाते जुगनुओं की और इन सब सुरों से जो सुनाई देता था, हर ओर वो ताजगी से महका एक राग था… जादू का राग… जंगल का राग। जिसने बड़ी खूबसूरती से खामोशी को अपना हिस्सा बना लिया था। बस वही राग सिर चढ़कर, दिल भर कर बोलता था… और जो दिखा, वो बस हरा ही हरा था। इतना हरा कि नजर जहां तक जाती, उसके आर भी हरा था, उससे पार भी हरा। यूं, हरे के ढेरों नाम, ढेरों किरदार हैं। जाने क्या-क्या तो कहते हैं अंग्रेजी में sap ग्रीन, burnt ग्रीन, अलाना ग्रीन, फलाना ग्रीन, लेकिन मैंने उस जंगली हरे का एक नाम रख दिया है, वही नाम – वही किरदार, हरे पर जंचता भी है हमेशा… `सुहाना हरा’। हर ओर जो था, जहां था उस मौसम का रंग, हरे से ही तो सुहाना था। बीच-बीच में लाली से दमकता-दहकता पलाश, जैसे किसी खिलखिलाते चेहरे पर प्यार से किसी ने अबीर छिड़का हो और फूलों का रस पीने को मंडराती बुलबुलें, कूकती कोयलें, जैसे भरे सावन में तड़प कर किसी ने आवाज दी हो।

एक थी काजी, एक था रंगा…


अपने दिमाग की बत्ती तो यूं भी गुल ही रहती है और ये जो जुगनू सा चमकता दिल है मेरा। वहां जाकर पूरे पावर हाउस में तब्दील हो गया। होता क्यों नहीं, काजीरंगा के नाम ही में जो है प्यार, तो फितरत में कैसे न आता।
हां यूं तो होता ही है कई बार, ‘आंख के अंधे नाम नयन सुख’। लेकिन ऐसा भी होता है कई-कई बार कि नाम भी चिराग हो और रोशनी भी हो। कभी-कभी नाम नहीं भी होता और कहीं-कहीं कमाया भी जाता है। हालांकि ये नाम हमेशा अच्छे-अच्छे ही रखे जाते हैं, फिर भी ये बेचारे कभी-कहीं बदनाम भी हो जाते हैं, तो काजी और रंगा का नाम बदनाम हुआ या नामदार? चौंके? मैं गांव के हर दर पर, जबान-जबान पर कहानियां ढूंढ रही थी… वहीं एक नौजवान बोला, ‘अरे काजीरंगा के तो नाम में ही में कहानी है, वो भी प्रेम कहानी…।’



देश-विदेश के समझदारों को, खबरदारों को पता भी नहीं कि ये नाम काजीरंगा, जो इतना एक साथ लिया जाता है, घुल कर मिल गया है। दरअसल, ये कभी दो अलग-अलग लोगों का नाम हुआ करता था। एक थी काजी और एक था रंगा। पास ही के गांव के दो बेबाक प्रेमी और जैसा होता ही है इनका प्रेम, इतना गाढ़ा प्रेम कि दूसरों की सांस में अटकने लगा। फिर सजा मिली… सजा में समाज से बेदखली ही नहीं, प्रेम की दूरी भी थी। दोनों दूर, दो दिशाओं में भटकते रहे, फिर ढूंढने को, ढूंढ कर मिल जाने को चिड़िया बन गये। एक बनी केतकी, दूसरा एक कुली (कोयल की दो प्रजातियां) और आकर मिले जंगल में।

दोनों आवाज लगाते काजी… रंगा… और जंगल में ये आवाजें गूंजती रहतीं। मिल कर दोनों ने इतना प्यार किया कि उनका नाम हो गया। अब शान से इनकी कहानियां सुनायी जाती हैं और पूरी दुनिया बड़े प्यार से पुकारती है, काजीरंगा!

दिल है बीहड़, बहुत अकेला…


मैं जंगल में भीतर, और भीतर कदम रख रही थी और जंगल मुझमें बिछता जा रहा था। बहुत ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे और मेरा दिल भी बीहड़ है बहुत। अकेला जंगल और अकेली मैं, हम दो अकेले मिल कर कितने साथ-साथ हो गये… क्या बताऊं, घने पेड़ों और नदी से छन-छन कर आती हवा से दिल के सब दाग भर रहे थे, हर हलचल तरंग में बदलती गयी। नीली हवा के झोंकों में शरीर जैसे किसी तरल सा बहा जा रहा था।



शुरू में दिल की कुछ पुरानी-दबी हिलोरों ने मुंह उठाया भी, लेकिन जैसे-जैसे जंगल घनघोर हुआ, जिंदगी की कड़ी धूप को जंगल के हरे सायों ने ढक लिया और हरियाली की इस छांव में सब शांत, बेहद शांत होता गया… न चुप नहीं! गुमसुम भी नहीं! वैसा, जैसे नन्हे, नटखट बच्चे के चेहरे पर नींद में सुकून की मासूम मुस्कान खेलती है। कदमों की चाप, जो सुनसान रस्ते पर पड़ती तो खटर-पटर नहीं… न शोर भी नहीं… लगता, जैसे किसी बंजर साज पर बहकी उंगलियों ने मचलकर जुगलबंदी की है… हां सूखी पत्तियां, एक दम बुड्ढे, बड़े लोगों की तरह होती हैं, जरा सा छेड़ दो तो खूब खटर-पटर करती हैं…

मखमल घास, शाखों की बांह


जंगल में सब कुछ है। लहराने को घास। धंसने को दलदल। उठने को पेड़। डूबने को नदी। इसे ज्ञानी लोग बायोडायवर्सिटी एरिया कहते हैं, जो प्राणि विज्ञान के लिए सबसे अच्छा है। आपको एक ही जगह, अलग अलग किस्म और खूबियों वाले प्रकृति और प्राणी मिल जाते हैं। मैं इन सबके बीच विचरती रही और वो जंगल, वो रास्ता हर पल मुझसे मिलता रहा, मुझमें आकार लेता रहा… ये घास हिली और मखमल-सी बिछती गयी मुझमें… और आह! दिल हरी-हरी नयी-नयी घास से भर गया। खुशबू आयी न भीनी-भीनी…



यूं भी अपने देश के उस दूर-दराज हिस्से में वो जो घास मुंह उठाये खड़ी है, शाहों की शाह है। यूं तो उसकी लंबाई देख कर उसे हाथी घास कहा जाता है, लेकिन मैंने तो बड़े भारी हाथी को भी उस घास में खड़े-खड़े छिपता पाया। जी! इतनी ऊंची कि 10 फीट का हाथी ढंक जाए। हालांकि वक्त पतझड़ का था… घास के चेहरे पर कई जगह बुढ़ापा छाया था, रंग जर्द था क्योंकि फॉरेस्ट में इसी मौसम में घास पूरी उम्र लेती है और इसी मौसम में उसे जला कर खत्म भी किया जाता है, ताकि वो जगह दे और नयी नन्ही घास जन्म ले सके… जो खासकर वहां पाये जाने वाले गैंडों की पसंदीदा है। मेरा दिल क्या, पूरा वजूद घास की नरमाई में ढंक गया। अब एक पेड़ लहलहाया। ये जड़ों ने पकड़ा। मजबूती से कसा और प्यार से जकड़ा। कुछ और शाखें बाहों सी बढ़ने लगीं। ये लो मुझ पर भी बौर आ गये। ऐसे ही विशाल मजबूत पेड़ मुझे मिले वहां, जिनकी आदमकद-सी होती पत्तियां सूरज को अंदर झांकने भी नहीं देतीं। भला ऐसी प्यार की छांव में पक्षी क्यों न सुखी रहते।

ओ नदिया! रगों में दौड़ती-बहती रहना…


मैं गंगा से कई बार मिली। कई तरह से मिली। लेकिन अबकी उसकी बात वेटिंग में… गंगा के ही नजदीक से निकलती है ब्रह्मपुत्र और असम में बहती है। मैंने ब्रह्मपुत्र देखी, बल्कि देखी कहां गयी? अपनी नजरों के पैमाने में वो ऊंचाई कहां, वो गहराई कहां कि आंख भर पाये ब्रह्मपुत्र से। दुनिया की सबसे विशाल ही नहीं, सबसे गुस्सैल नदी मेरे सामने स्वांग कर रही थी। एक और सुखद बात है कि खेलती कूदती डॉल्फिंस, जिन्हें निहारने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाना पड़ता है, ब्रह्मपुत्र के एक हिस्से को अपना मकाम बनाये हैं। हालांकि ये आकार में कुछ छोटी होती हैं, लेकिन मस्ती में कम नहीं। एक कंजर्वेटर से नदी के बारे में बात की, तो सुन कर मजा आ गया कि ब्रह्मपुत्र के बचाव और रखरखाव के लिए कुछ नहीं करना पड़ता।



हां! हर साल आने वाली इसकी गुस्सैल बाढ़ से इंसानों का बचाव करना भारी काम है। अच्छा लगा ये सुनकर क्योंकि, हमारे देश की बाकी सभी नदियां बीमार-सी, सूखी पड़ी हैं और अलग-अलग लोग उनके कंजर्वेशन के नाम पर युद्ध स्तर पर पैसा गंवा और कमा रहे हैं। फिर भी बीमार का हाल ज्यों का त्यों। लेकिन ब्रह्मपुत्र तो… जिधर देखती हूं, उधर तुम ही तुम हो। इस विशाल नदी से छू के आती हवा ने मेरे गाल सहलाये, बाल उड़ाये और दिल संदली-संदली कर दिया।

अब लो! दिल का गरमा गर्म उबलता-उफनता खून झील हुआ जा रहा है… खून की गर्मी जीवन के लिए मायने रखती है, लेकिन पानी कोई बुरी शय नहीं। सुंदरतम नेमत है। लेकिन जो खून पानी हो गया… ये सुनना गाली सा लगे, तो ठीक। कहती हूं, `बेहद शीतल लहलहाती ठंडी नदी मेरी रगों में उतर मद्धम-मद्धम बहने लगी… और कांटे लगने पर जो खून बहा, तब भी ऐसी ही मौज रही, जैसे खून नहीं, जरा सा शरबत छलक गया हो।’

जंगल मिला, ज्यों मिल गयी जिंदगी

जंगल में खोते-खोते जंगल मिलता गया मुझे। सब्र और सुकून की इन्तेहां ऐसे हुई कि दिल की हर मशाल लौ हुई जा रही थी। नाराज न होना – यूं मशालों की बेहद जरूरत है मेरी दुनिया को, लेकिन उसकी जरूरत भी तो नफरत ही की जाई है। उन झोंकों के बीच सरसराता मेरा वजूद इतना हल्का, इतना फुल्का हुआ कि मिट्टी के ढेले सा लगने लगता, फिर ये ढेला भी भारी-भारी सा। काश! ये इसी हवा में मरमरी हो बिखर जाए। वाह! आइडेंटिटी क्राइसिस की मारी मेरी दुनिया में ऐसा भी एहसास होता है और क्या खूब होता है! इतना साफ, इतना ताजा है सब कुछ कि लगता है – यही वह बिंदु है, जहां से पृथ्वी का जन्म हुआ है। लगता है न मैं ये हूं न वो, मैं बस हूं!

मेरे होने का… जन्म भर का… जीवन का… मोल… अनमोल। मुझसा हर कोई जो सांस लेता है, जीवित है, वही बस। सबसे अनूठी बात है कि जीवन है और, और हम सब इस एक जीवन की इकाइयां हैं। जंगल ही वो जगह है, जहां घूमते हुए आप खुद को हजार सालां महसूस करेंगे। जैसे, कितनी ही सदियों से जागते, भटकते दुनिया, सभ्यताएं देखा किये हों। महसूस होगा मैं इस दुनिया का सबसे पहला, सबसे पुराना प्राणी हूं, जिसने दुनिया पल-पल बनते देखी है और जो बनी है और ऐसी खूबसूरत बनी है, तो बिगड़ न जाए। जंगल ही वो जगह भी है, जहां आपको अचानक लगेगा – मैं अभी इसी क्षण जन्मा हूं। इतना नया हूं कि लम्हा भी नहीं हुआ आंख खोले। ये दुनिया पहली बार देखी है, इसी पल कायनात के पहली बार दर्शन किये हैं।


एक चिड़िया, अनेक चिड़िया…


चिड़ियों को खोज पाना इतना आसान नहीं था। यूं भी पापा कहते हैं – चिड़िया सबको नहीं दिखती। एक ही पेड़ पर आप चिड़िया निहारने का आनंद ले रहे होंगे, लेकिन अपने मित्र को दिखाते-दिखाते थक जाएंगे और उसकी नजरें चिड़िया के आसपास पर तक नहीं मार पाएंगी। इन्हें देखने के लिए तो प्यार की तमन्ना भरी नजर चाहिए। अच्छी-खासी, कूदती-फांदती चिड़िया, जो जंगली भैंसे की भीमकाय सींगों और पूंछ तक का खौफ नहीं खाती, रायनो की पीठ पर ठाठ से सवारी करती है, हमारी आहटों पर ही पर बिदकी जा रही थी। हम उसे दूर पेड़ पर दूरबीन से देखते और देखते ही देखते वो फुर्र करके… गायब! डाल से उड़ी, जा छिपी पत्तों के घने झुरमुटों के बीच। फिर धीरे-धीरे जाने कैसे वो दिल की बुलाहट पर आने लगी या आहट से फितरत पहचान गयी या शायद फोटो खिंचवाने का, हीरोइन बन जाने का जी चाहा हो… वो हमारी आंखों ही में नहीं, कैमरे की झपकती पलकों में भी समाने लगी।

मार्च के शुरुआती दिन थे और मैं चिड़ियों की तलाश में जा रही थी। गर्मी से मोटी खाल वाला आदमी बेहाल था, चिड़िया क्योंकर बहाल होती? सबने कहा – ये सही वक्त नहीं! सर्दियों में जाना… असम फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से भी परमीशन से पहले सलाह मिली – ‘इस मौसम में बहुत मुश्किल है, असंभव जैसा’, लेकिन मेरे हौसले भी बुलंद थे। इरादे भी अनेक। सारे नेक और मन में एक बात थी – काजीरंगा एंडेमिक बर्ड्स, यानी वो परिंदे, जो जन्मते जिस जगह हैं, दम रहने तक वहीं रहते हैं। अपना चंबा छोड़ जाते नहीं कहीं। गर्मी से डरकर विदेशी मेहमान परिंदे जब जा रहे होंगे अपनी प्यारी हिमालयन बर्ड्स ने कहा होगा, `कौन जाए हिमालय की गोदी छोड़कर’। मैं, मेरे कैमरा परसन नासिफ, असिस्टेंट धर्म, फॉरेस्ट गार्ड अनिल और हमारे रथ का सारथी बाबलू कमर की पेटियां कस कर उड़ लिये अपनी खुली जीप पर परिंदों से हाथ मिलाने।

दरख्तों पर परिंदों की प्रदर्शनी!


भरतपुर बर्ड सेंचुरी में मैं इतनी चिड़िया इस तरह देख चुकी थी, जैसे बर्ड्स की एक्जिबिशन लगी हो, वो भी `ओपन फॉर ऑल’। पेड़ों पर पत्तियों से ज्यादा परिंदे दिखते। नजारा ऐसा, जैसे जंगल कोई आर्ट गैलरी हो, पक्षी पेंटिंग्स और बनाने वाले ने अपनी कलाकृति बड़े सलीके से सजायी हो। काजीरंगा जैसे जंगल में तो ये यूं भी असंभव था, क्योंकि ऊंची-ऊंची घास और छतरी से फैले पत्ते जहां सूरज तक छिपाने का हौसला रखते हैं, फिर वहां चिड़िया कहां दिखती… सो हम एक-एक डाल से चिड़िया चुग रहे थे। हां, मौसम नये-नकोर सपूतों की पैदाइश का था, रायनो हों या हाथी या जंगली भैंसे या पक्षी। कुछ की गोदें बच्चों से भर चुकी थीं। कुछ तैयारी में थे और अगले महीने तक वो भी बाल-बच्चेदार हो जाने वाले थे। कुछ के साये कैमरे में कैद हुए और छूट गये वो नजारे आंखों में सजे अब भी तैर रहे हैं।



मैं 450 हिमालयी चिड़ियों के नाम-पते साथ ले गयी थी कि सबसे मिलूंगी। लेकिन दिन भी कम थे और दोस्त ज्यादा। सो कोई 30 तरह की चिड़िया दिखीं और 24 किस्म की चिड़ियों ने फिल्म में रोल निभाया (अब ये न पूछना किसका कितना पार्ट था, लेकिन हां हर चिड़िया अपने आप में एक किरदार थी)। अब अगर तकदीर सी कोई चीज होती हो तो हमारी अच्छी थी, क्योंकि दस दिन में जंगल में इतना फिल्मा लेने पर `वाह! वाह! क्या बात है’ न भी कहा जा सके, तो भी पीठ ठोंकने लायक कारनामा तो है ही। हां, हमें पंछियों का मेला तो नहीं मिला… लेकिन हम डाल से पंछी चुग रहे थे, एक-एक चिड़िया के पीछे भाग रहे थे।

चिड़िया जब पहली बार दिखती और हम फिल्मा नहीं पाते, तब थोड़ी निराशा होती। लगता-फिर मिलेंगे या नहीं! किंगफिशर मिला और बहुत खूब मिला। सपरिवार मिला। लेकिन आंखें तब झपकना भूल गयीं, जब जिन्दगी में पहली-पहली बार ह्वाइट किंगफिशर को देखा। डाल पर बैठा था। जब तक देखती फुर्र। लेकिन देखकर ही आंखें तृप्त हो गयीं। फिर एक झील पर मिला। कैमरा सेट होते ही उसने उड़ान ली। हमने उसकी उड़ान का पीछा किया। लेकिन कहां कर पाये। क्योंकि बाकी पंछियों की तरह अर्ध गोला बनाते, उसने धीमे-धीमे उंचाई नहीं पकड़ी, बल्कि वो ठीक निशाने पर लगने वाली गोली की तरह आकाश भेदता सीधे उड़ा। अब मैंने ठान लिया, `साहब को फिल्माना है’, फिर वो हमें एक झील पर मिले… आखेट पर निकले हुए। (इस झील को याद रखिए, आगे बताऊंगी… क्या कुछ मिला यहां!)

झील किनारे, किंगफिशर पुकारे


कैसी झील थी, वो क्या बताऊं… दूर तक धरती के सीने पर मचलती लहरें। लहरों के किनारे भीगी धरती और धरती के किनारे मुंह उठाए झुंड के झुंड खड़ी घास। इसी झील के पानी के ऊपर आसमान में स्टैच्यू से खड़े हो गये सफेद किंगफिशर साहब। ऊपर से पानी में झांकते हुए। फिर अचानक तेज पंख फड़फड़ाये और सीधे पानी में वार किया। बल्कि पानी में छिपी किसी मनचाही स्वादिष्ट डिश पर। लेकिन इस बार भी हमारे कैमरे की नजर चूक गयी। काफी देर इंतजार किया, लेकिन पेट भरने पर तो तान के सोया जाता है, सो वो न आये। मुझे लगा जो तीन बार दिखा है, तो फिर जरूर दिखेगा और इस झील में शिकार खेलता है तो यहीं आएगा। लौटकर, उसी शाम हम उसी की तलाश में फिर झील पर आये और देखा साहब पैनी निगाह धारदार चोंच ताने फिर पानी पे फड़फड़ा रहे थे। इस बार मैंने गार्ड दा की बंदूक तान दी। मुस्कुराते हुए कहा, `मुझे ये शॉट चाहिए… मतलब चाहिए ही’ और हुर्रे हमें मिल गया। हमने सांस थामे, आंख गड़ाये उसका पीछा किया और पा लिये चमचमाते-उड़ते रंग और ये बेबाक उड़ान। बहुत खास झील थी ये। इस झील पर हमने कई किस्म के परिंदे ही नहीं पाये, जानवर भी पाये और इंसान भी पाये।

फिर मिलना तुम यार रायनो!



यूं, न मैं कोई जंगल विशेषज्ञ हूं, न कोई समझदार जंतु अन्वेषक, सो मैं क्या बता पाऊंगी आपको जंगल के बारे में। लेकिन चूंकि जंगल से मिलकर लौटी हूं और बहुत अमीर होके लोटी हूं, सो बोलने को बहुत कुछ है मेरे पास। शायद मैं ऐसे बोलूं, जैसे-कोई छोटा बच्चा अपने पहले शब्द बोलता है। फिर भी शायद जो मैं जंगल के बारे में कह पाऊं, वो कोई और न बताये, सो मुझे मेरे हिस्से का कह लेने दीजिए। मैं वहां चिड़ियों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने गयी थी… उनके पीछे डाल-डाल भागते हुए ये जंगल मुझ पर किसी हसीन राज की तरह धीरे-धीरे खुलता रहा। भरा-पूरा जंगल था और जंगल में मंगल ही मंगल था। मुझसे पहले तीन दोस्त वहां घूमने जा चुके थे। दो खाली हाथ, जबकि एक-एक साथी रायनो की एक तस्वीर के साथ लौटे थे।




हालांकि डॉक्यूमेंट्री के चलते खास हिस्सों में जाने की इजाजत थी, सो मैं जंगल में वहां-वहां थी, जहां टूरिस्ट नहीं बस जानवर ही मिला करते हैं। 5-5, 6-6 के झुंड में घूमते रायनो तक मिलते, हर दिन 20 से 25 रायनो देखे। इतनी बार, इतने करीब, इतनी तरह से देखे कि उस तरह तो अपनी गली में भटकते कुत्ते और गाय तक नहीं मिलती। कितनी ही बार एक ही पगडंडी पर हम आमने-सामने हुए। हम रुके, ताकि वो पहले रास्ता पार करे। कितनी ही बार हम रुके कि सामने और पीछे, हर ओर के रास्तों पर वो जुगाली कर रहा था। मैं गदगद हुई जा रही थी कि अपने घर से इतनी दूर, एक ऐसा दुर्लभ प्राणी मुझे इस तरह दिख रहा है, जो हमारी ओर पाया ही नहीं जाता।

झील के पास… (वही झील, जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुकी हूं), दलदल के एक सूखे हिस्से में हम कैमरा लगाये खड़े थे। बाबलू ऊंची-ऊंची घास के पास पढ़ने में गुम था। मुझे उस घास के जंगल में जहां नजरें तक उलझ जाती हैं, कहीं रायनो की हलकी सी आवाज सुनाई दी। पूरा यकीन तो नहीं था, फिर भी कहा – आसपास शायद रायनो है और सिक्यूरिटी दादा बोले – अरे नहीं-नहीं, लेकिन दो मिनट के अंदर ही हम सब कुछ उठाकर और कुछ गिराकर भाग रहे थे। क्यों भला, इसलिए क्योंकि हमसे मीटर भर की दूरी पर ही रायनो था। अचानक मैंने पाया, सब बहुत आगे निकल चुके हैं और मैं और सिक्यूरिटी दादा पीछे-पीछे और हमारे समानांतर उसी दिशा में तेजी से भागते हुए एक रायनो निकला। दूसरा हमारे साथ-साथ भागने लगा। हम ठिठक गये, दूली राम ने हवाई फायर करना चाहा, पर बंदूक नहीं चली। हम चुपचाप खड़े थे। मैं तैयार थी। आज हम अपनी वफाओं का असर देखेंगे। लेकिन रायनो तो पहले वाले रायनो का पीछा करते निकल गया। उसने मेरी ओर झांका तक नहीं। फिर पता चला, आगे रायनो नहीं रायनी थी, जिसका पीछा करने में उसका रायनो मशगूल था। फिर भला मुझे क्यों देखता।

उसके जाने के बाद हम सब दूली राम पर हंस रहे थे और गार्ड्स के मचाननुमा पड़ाव पर बैठे लाल चाय के साथ गप्पें मार रहे थे। दोपहर 12 से 2 बजे जब सूरज सर तक चढ़ आता, तो हम जंगल के बीच इन्हीं मचानों पर गार्ड्स के साथ खाना खाते-बनाते और किस्से-कहानी बतियाते और हां, विविध भारती भी सुनते। तो इस झील पर मिलने वाले परिंदों की भी बात हुई और जानवर की भी कहानी हुई पूरी, लेकिन ये झील ऐसी करोड़पति झील थी कि इस पर इंसान भी मिले।

सुनो कहानी – शेर के मुंह में उपेन दादा का हाथ


नन्हे-मुन्नों जैसे भोले-भाले चेहरे वाले एक सुंदर, प्यारे से बुजुर्ग वहां रायनो प्रकरण पर हंसते हुए घूम रहे थे। मैंने उनसे गार्ड के काम के बारे में कुछ बात की, तो मुस्कुराते हुए अपना हाथ दिखाया। चमड़े की पतली सी नयी परत हड्डियों पर ढकी थी। बोले, `तब मैं जवान था, जब टाइगर से मेरी यहां मुठभेड़ हो गयी। मुझे न उसे मारना था, न खुद मरना था। उसने मेरे सिर की ओर निशाना साधते हुए मुंह फाड़ा और मैंने सिर की जगह अपना घूंसा उसके जबड़ों की गुफा में घुसा दिया। हाथ तो गया लेकिन जिंदगी बच गयी न।’

ये कहने के बाद उन्होंने कुछ और निशान दिखाये। शरीर पर इतने टांके, जैसे – मांस की कतरन जोड़-जोड़ के शरीर बना हो। ये टास्कर से लड़ाई के निशान थे (टास्कर, बोले तो – एक मीटर लंबे दांतों वाला खतरनाक जंगली हाथी)। उनके किस्से पूरे भी नहीं हुए थे कि नौजवान गार्डों ने टोक दिया – ये सब ठीक है, लेकिन बाहर वालों को क्यों बता रहे हैं? जंगल की ऐसे बातें बताने की अनुमति नहीं हैं। दादा ने उतना ही हंसते हुए कहा – मैं साठ साल का हो रहा हूं। कितनी कहानियां हैं मेरे पास। अगर मैं लिख पाता, तो अपनी आत्मकथा लिखता। अब ये लड़की मेरी कहानी लिख देगी।

मैंने भी कहा – हां दादा, मैं आपकी कहानी पूरी दुनिया को बताऊंगी। दादा का नाम है उपेन तामोली और उन्होंने कहा था – मेरा नाम भूलना नहीं। मैंने भी वादा किया था – दादा मैं आपका नाम कभी नहीं भूलूंगी। देखो दादा मुझे याद है! हमेशा रहेगा!! ऐसे ढेरों गार्ड हमें जंगल में मिले, हम थे जिनके सहारे। ये आस-पास के गांवों के ही लोग थे, जो जानवरों-खासकर रायनो से हमारी और जंगल में जान-माल की रक्षा की खातिर यहां गार्ड की ड्यूटी निभा रहे थे। महज 1500 रुपये में घर से दूर, तमाम खतरनाक जंगली प्राणियों से भरे जंगल में नाम की बंदूकें लिये इस धरती, इस आकाश के नाम अपनी जिंदगी लगाये हुए थे। उनके पास ना ठीक कपड़े होते, न खाने सा खाना… हां एक रेडियो और शुभकामना के लिए गले में लटका हिरन का सींग हर जगह मौजूद था।

सफेद बर्फ पर काली रेशम

स्कूल में एक हिमालयी चिरिया वेग टेल पर एक कविता पढ़ी थी। छोटी-सी, बित्ते भर की पंछी, सफेद बर्फ पर काली रेशम की कसीदाकारी सा रंग। अपनी पूंछ पेंडुलम की तरह ऊपर-नीचे टक-टक करती रहती है। दिखी और देखते ही पहचान हो गयी। शुरू में तो उसने भी नखरे दिखाये, फिर तो इस कदर दिखी कि जहां जा रहे हैं, वहीं वो आगे-आगे। यहां तक कि जीप के आगे उड़ रही है। जीप रोकी, तो वो भी बैठ गयी। छोटी-छोटी घास के बीच अपना भोजन तलाशते और आराम से शौक फरमाते उसे खूब देखा। ब्राह्मणी बतख, लाल कलगी लगाए सुनहरे रंगों से भरपूर जंगल फाउल, सुंदरता में मोर की बराबरी करने वाली खलीज पिजेंट जैसे खूब पक्षी मिले, लेकिन मजा तो हमें तब आया, जब पक्षी ढूढ़ते-ढूंढते हमें नदी किनारे एक ठूंठ मिला। यूं, पक्षी देखने में गर्दन ऊंची रखने की आदत हो गयी थी और हर चीज चिड़िया नजर आती थी। हंसते थे कि अब तो सपने में भी चिड़िया दिखती है और शॉट बनने से पहले उड़ जाती है…।

उस ठूंठ की बात ही कुछ और थी। गर्मी से गरमाये पक्षी नदी में गोता लगाते, फिर वहां बैठकर सूर्य स्नान का मजा पाते। पांच किस्म की चिड़िया। हैरानी ये कि एक के बाद एक चिड़िया वहां आती, जैसे हमाम की लाइन लगी हो। एक ही जगह इतनी चिड़िया। हमारे तो हौसले बुलंद हो गये। हमने उस जगह को फोटो स्टूडियो नाम दे डाला और हौसलों की बुलंदी कुछ ऐसे बढ़ी कि जब द्रांगो नाम की नीली चमकदार चिड़िया देर तक ठूंठ पर नहीं बैठी तो धर्म ने कहा – चुप! फोटो दो!

आर्रलेसर एडजंट, ग्रेटर एडजंट, स्टॉक, ब्लॉक नकद स्टॉक जैसी बड़ी भारी चिड़ियों का जिक्र तो करना ही भूल गयी। कद चार फीट के आस-पास। सुराहीदार गर्दन और सीधे सज्जन व्यक्ति की तरह हैं ये, जो बिना तेवर दिखाये आसानी से दलदल में दाना-तुनका चुगते दिख जाते थे। घंटों एक ही जगह, एक ही मुद्रा में खड़े या टहलते। हां, ज्यादा आहट हुई तो दलदल या पानी के पास खड़े ऊंचे पेड़ों पर बने अपने घोंसलों पर उड़ जाते। मैं तो हैरान हो गयी इन्हें उड़ता देख। विश्वास नहीं हुआ, इतना भारी शरीर लेकर भी कोई उड़ सकता है। अब पंख है तो उड़ान भी है… लेकिन इसी भरे-पूरे शरीर के कारण इनकी उड़ान बेहद खूबसूरत, भद्र सी लगती है। आकाश का एक हिस्सा इनके पंख ढंक लेते और सुनहरी किरनें इनसे फूटती-सी दिखतीं। अगर आकाश पर छायी इनकी ये उड़ान न होती, तो शायद ये मुझे उतने पसंद ही न आते। मुझे छोटी चिड़िया ज्यादा पसंद हैं। वो मुझे चमत्कृत कर देती हैं, हैरान-परेशान कर देती हैं। बड़ी चिड़िया के पास सौम्यता तो है, लेकिन वैसी चंचलता नहीं। उनके रंग अक्सर फीके ही होते हैं, धुंधले-धुंधले, ताकि वे आसानी से नजर न आएं, जबकि छोटी चिड़ियों ने जम के रंग-गुलाल खेला होता है। एक से एक चटखदार रंगीन दुशाले ओढ़े… जैसा रंग, वैसा ढंग। मिजाज भी रंगीन, फुर्र से गायब हो जाने वाली, आसानी से हाथ (नजर) न आने वाली। खूब ललचाती, बहुत सताती ये छोटी चिड़िया और मैंने भी खूब सताया अपनी टीम को। बहुत दौड़ाया, क्योंकि मुझे यही प्यारी थी। मुझे यही बोलती-बुलाती सी लगती। वो हमें एक पेड़ पर दिखती। लाल, हरी, पीली, नीली और चिड़ियों से लहलहाया पेड़, जैसे-रंगों का एक डिब्बा हो। हम जब तक उतरते, वो उड़कर दूसरे पेड़ पर। हम वहां जाकर कैमरा लगाते, वो तीसरे पेड़ पर। देर तक लुका-छिपी चलती, फिर अचानक भूल-भुलैया शुरू हो जाती। वो किन्हीं पेड़ों में गायब हो जातीं… हम जान ही नहीं पाते कि कहां गयी? ढूंढते… कभी रास्ता भटक जाते, कभी मंजिल पा जाते। हमें खूब छकाने वाली चिड़ियों में नीलकंठ भी शामिल थी।

चिनार वन में ड्रिल मशीन


चिनार वन से गुजरना अपने आप में एक खुशनुमा एहसास है, लेकिन अगर इन चिनार वनों के बीच घुर्र-घुर्र की ऐसी आवाज सुनाई पड़े, जैसे – कहीं दूर कोई ड्रिल मशीन चल रही है तो समझ जाइएगा, पास ही कहीं वुडपैकर अपना आशियां सजा रहा है। हमने उसे डाल-डाल, तने-तने घूमते पाया किसी जिम्मेदार गृहस्थ की तरह घर की जमीन ढूंढते। वो एक-एक तने पर चोंच मारकर जांच रहा था और मनचाहा तना मिलते ही घुर्र… और लो, घंटे भर में ही तैयार है मकान। इंतजार में है मेजबान। एक कोर्मोरेंट डाल पर पंख फैलाये मिला। हमें देखते ही पर समेटे-फैलाये और उड़ गया, लेकिन बाबलू ने बताया – ये फिर दिखेगा, यहीं दिखेगा। ये पिछले साल भी यहां आया था और इसी डाल पर बैठता था। मैंने उसके शब्द पहेली की तरह सुने – तुम्हें कैसे पता कि ये पिछले साल वाला ही कोर्मोरेंट है। खैर, शाम को हमें वो, वही कोर्मोरेंट फिर उसी डाल पर बैठा मिल गया। शान से पंख बांहों की तरह खोले बैठा था। लगा – खुद को ईसा मसीह समझता है। मैंने जाना – जैसे, हम अपनी पसंदीदा जगहों पर लौट-लौट कर जाते हैं, ये पक्षी भी ऐसे ही, वहीं आराम फरमाते हैं।

यूं, काजीरंगा में पेलिकान वैली ही है। किसी भी झील के पास सत्तर-अस्सी पेलिकांस एक साथ देखने का मजा लिया जा सकता है। हालांकि गर्मी के कारण हमें सात-आठ के ही झुंड मिले। गुलाबी रंग और लगभग दो फीट का पेलिकन! मिठाई चुराने जाते किसी बच्चे की तरह पैर दबाते हुए चलता। पानी के किनारे झुंड में पसरे वार हडड गूज मिले, जिनका ये नाम उनके सिर पर पड़ी लकीरों के कारण पड़ा। हर वक्त या तो आलसी ऊंघते या घास में टूंगते। सुबह से शाम तक बस सोने-खाने में तमाम करते। बमुश्किल ही कभी उड़ते भी, तो कहीं पास ही जाकर फिर जम जाते। हमें घोसला बनाती चिड़िया मिली, शिकार करती खास फिश आई इगेल। जब हम देर तक किसी चिड़िया की हरकतें संजो चुके होते, तो चाहते कि इनकी उड़ान भी मिल जाए, ताकि इसकी उड़ती तस्वीर के सहारे हम भी दुनिया का एक चक्कर लगा आएं। लेकिन होता ये कि चिड़िया घंटों नहीं उड़ती। हम हाथ-पैर जोड़ते रह जाते। उड़ान के इंतजार में घंटों खड़े रह जाते। अब कोई कानून तो है नहीं। नहीं उड़ना, यानी नहीं उड़ना और कोई-कोई चिड़िया देखते ही उड़ जाती।

चिड़ियों में दो तरह की चिड़िया ही पायी जाती हैं। एक उड़ने वाली, एक न उड़ने वाली। एक से रुकने की प्राथना करते, एक से उड़ने की और दोनों ही थीं अपने मन की। धीरे-धीरे हमें बैठने की मुद्रा से पहचान हो गयी – ये उड़ेगी, ये नहीं! एक बार न उड़ने वाली बारबेत पेड़ पर दिखी, कैमरा लगाया गया, शॉट तैयार था… इतने में अनिल दा ने टहलते हुए सीटी बजा दी और सुरीली चिड़िया को ये पसंद नहीं आया। वो उड़ गयी। सुबह से ज्यादा शॉट मिले भी नहीं थे, सो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया। मैंने तमतमाते हुए कहा – उड़ा दी न? अब वापस बुला के लाओ… और सब हंस दिये। मुझे आज तक समझ नहीं आया – क्यों हंसा जा रहा है मुझ पर!

हालत तो ये थी कि शिकार चिड़िया तलाशती, दुआ मैं मांगती – काश! इसे कोई शिकार मिल जाए। जैसे ही चिड़िया पानी में चोंच मारती, मुझमें भी उम्मीद गुदगुदाती, आशा जगमगाती, ‘खाने को कुछ मिला?’ हां, कुछ चिड़िया ऐसे भी थीं – ‘मैं अलबेली बड़ी शर्मीली’। अब न जाने शर्मीली थी कि बस यूं ही चिढ़ाने को पीछे-पीछे घुमाने के लिए तेवर दिखा रही थी। एक थी कोकुल, धरती को ढके, घनी झाड़ियों में भागकर छिप जाती। काले मखमली शरीर पर सोने से सुनहले पर और खूब भारी काली पूंछ, जैसे-किसी लड़की की पीठ पर मटकती सुंदर चोटी। धरती से उठते आकाश तक जाते पैरों पर भी एक और थीं मोहतरमा… मिस माल्खोआ साहिबा। कमाल की खूबसूरत, गजब का चमचमाता नीला मोरपंखी रंग और उस पर सफेद पोल्का स्पॉट्स और पूंछ जापानी पंखे सरीखी फैलती। उसकी मैंने ढेरों तस्वीरें देखीं, लेकिन हर तस्वीर माल्खोआ के तस्सवुर के आगे फीकी निकली। तस्सवुर भी कैसा? पलक झपकाने जितना, बस उसको तो पूरा-पूरा देख भी न पायी। जब दिखी, पीछे से भागती-छिपती नजर आयी। इतनी फुर्तीली कि नजर पकड़ ही न पाये। हम कहते – इसका नाम है माल्खोआ। इसे माल खिलाओ, तब आएगी। मन तो करता था, उसे हाथ पर बिठा के समझाती, बतियाती – क्यों भाई, बड़ी उड़ रही हो। यूं, ऐसे फिरना, वो भी ऐसा रूप लेके, कुछ ठीक नहीं।

तो कोकुल और माल्खोआ ने हम पांच को पीछे-पीछे खूब दौड़ाया, छकाया पर मोस्ट वांटेड ही बनी रहीं। वो तो बाद में पता चला, जब किताब-कहानी दोनों एक ही प्रजाति की हसीनाएं थीं, सो एक-सा खून रगों में था या दोनों ने मिल कर तय किया था – आसानी से हाथ न आना। जो किसी को मिल जाएं, तो मेरा सलाम कहना और कहना – निधि इंतजार करती है, कभी मिल आओ।

मिला तो हमें वो भी, जो काजीरंगा के जंगल में पंछियों का राजा है – ग्रेट पाइड इंडियन हॉर्नबिल। सिर के ऊपर से जो उड़ान भर के निकल जाता, तो कान उसके परों की आवाज सुनकर आत्मविभोर हो जाते। `जप्प जप्प जप्प जप्प’ सी आवाज कानों में उतर जाती। डाल पर मीठे रसीले फल चटकारता मिला। अच्छा-खासा भारी-भरकम शरीर। बड़े-बड़े रंगीन पर, लेकिन सबसे बड़ी खासियत ठीक राजा के मुकुट सी सजी इसके चेहरे पर चोंच। यूं, इस अनमोल चोंच की कीमत कोई क्या लगाएगा, फिर भी सुना है कि बड़ी बेशकीमती है। हर बेशकीमती चीज के लिए लूटपाट होती है, सो लुटेरों ने इस चोंच के लिए खूब हॉर्नबिल मारे। सिर्फ हिमालय में पाये जाने वाले इस पक्षी पर हिमालय वाले नाज करते हैं और नाज का नजारा दिखाने को उसकी चोंच अपने माथों पर सजाया करते। हालांकि अब ऐसा करने पर रोक लगा दी गयी है और चूंकि हॉर्नबिल तो ज्यादा बचा नहीं, सो प्लास्टिक की चोंचें बाजार में मिलने लगी हैं। अब हमारी दुनिया ऐसी ही नकली चीजों से सजायी जाएगी… प्लास्टिक के पंछी, कागज के फूल, पत्थर के लोग!

रॉकेट-सी उड़ती जीप, कहीं भी बैठकर पढ़ता बाबलू

हिमालय की गोद में और क्या खास मिलता है? बताऊं? वहां बाबलू पैदा होते हैं। अरे वही, हमारे रथ का सारथी, जो जीप को रॉकेट की तरह चलाता था और पंछी देख के ख़ुशी से ऐसा बावला हो जाता था कि हम सब कहते थे – बाबलू रुक-रुक-रुक और वो जीप की स्पीड और तेज कर देता। लगता – सीधे डाल पर ही ले जाएगा। वो तो शुक्र है कि उसका बस ही नहीं चलता। बस हमारा चलता, जो उसे डांट कर जीप रुकवा देते। नहीं तो बाबलू सीधे चिड़िया के घोंसले के आगे ही जीप पार्क करता। पर रुकिए… बाबलू ये नहीं है… या ये भी है पर इससे ज्यादा बहुत कुछ है। तेरह साल का लड़का है, जिसके जीप चलाने से उसका घर चलता है। घर में मां है, बहन है, भाई है। बाबलू इससे भी बहुत कुछ ज्यादा है।



ये जंगल से जुड़े एक ऐसे गांव का बच्चा है, जहां पता नहीं चलता – कहां जंगल शुरू होता है, कहां गांव खत्म होता है। दिल में जंगल, आंखों में खोज, होंठों पर खुशी… एक हाथ में दूरबीन, एक हाथ में किताब और मन में ललक ही ललक। जहां जरा सी फुरसत मिल जाती, पढ़ने बैठ जाता। न किताब उसकी, न दूरबीन, इसलिए ही शायद उसे उस किताब और समय की कीमत पता है। मिले हुए वक्त का एक भी मिनट गंवाये बिना वो किताब में पूरा खो जाता। हैरानी होती, अंग्रेजी की मोटी-मोटी किताबें पढ़ता। कविताएं भी, लेकिन खासकर पंछियों पर लिखी। दूरबीन से देखता और पंछी का पूरा कच्चा चिट्ठा खोल देता। चलते-चलते भी पढ़ता रहता। बड़ा जादुई लड़का है बाबलू।

उसे दूरबीन और किताब में यूं गुम एक दिन देख रही थी, तो हंसी आ गयी – पूरा सलीम अली का पोता लगता है। काश! वो सलीम अली का पोता ही निकले। इतना पढ़े, इतना पढ़े कि सब जान जाए और सब दुनिया उसे जान जाए। जाते हुए मैंने उससे कहा – तू इतना पहचानता है चिड़ियों को… नाम-काम, और क्यों नहीं पढ़ता? सीधा जवाब – किताबें ही नहीं हैं।

बाबलू को कुछ ही दिन में पता चल गया था कि मेरे पास किताबें हैं और दूरबीन भी, तो नीचे ही से आवाज लगाता, दीदी किताबें रख लेना। और कुछ दिन में तो कमरे में आता, किताबें छांटकर ले जाता। मैं जाने लगी, तो आ गया और कहने लगा – आप कल चली जाओगी, तो मई क्या करूंगा। मैंने हैरानी से उसे देखा। भोली-भाली आंखों में ब्रह्मपुत्र उमड़ रही थी। फिर खुद ही कहा – `करूंगा क्या, बस जीप ही चलाऊंगा। पहले भी तो वही करता था…’ और, और उमड़ती नदी उसकी आंख से उफन गयी। मैंने कहा – चल! मेरे साथ राजस्थान चल, वहीं रह।
क्या आप सोच सकते हैं – तेरह साल का वो बच्चा, जो अपना घर चलाता हो, किसी के ये कहने पर कि तीन हजार किलोमीटर दूर चल… इस सवाल का क्या जवाब देगा? आपसे कोई पूछे तो आप क्या जवाब देंगे? मैं तो कभी वो बात नहीं कह सकती, जो बाबलू एक सांस में कह गया – वहां के जंगल में क्या-क्या मिलता है? मेरे मुंह से एक लफ्ज नहीं निकला। बस चेहरा ताकती रह गयी। कितना बसा है जंगल तेरे में? मैंने तो सोचा था – कहेगा, कैसे जाऊं या वहां क्या करूंगा? भला ये क्या सवाल हुआ बाबलू? उसके जंगल से बमुश्किल निकलते हुए मैंने जवाब दिया – जैसे यहां रायनो हैं, वहां ऊंट मिलता है। मोर मिलता है, नील गाएं, चिंकारा हिरन… वो थोड़ा खुश हुआ और बोला – ठीक है, कभी तो आऊंगा पर आप भूल जाएंगी। मैंने कहा – शायद अगली बार आऊं, तब तक तू लंबा हो जाए और मैं मोटी, तो तू भी नहीं पहचान पाएगा मुझे। वो बोला – मैं आपको हमेशा पहचान लूंगा किताबों वाली दीदी। याद हो आया। बचपन में जब कोई पूछता था – तुम कौन-सी निधि हो, तो पापा कहते थे साहित्य निधि। मैं वो तो नहीं हूं, होना असंभव है। लेकिन बाबलू की किताबों वाली दीदी बनके ज्यादा खुश हूं।

मेरे जयपुर आने के बाद बाबलू और गांव में मिले दोस्तों के फोन आये (बल्कि पहुंचने से पहले शुरू हो गये)। भाई ने बात करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन हो नहीं पायी। मैं आयी, तो मुझसे पूछा – उन्हें तो न हिंदी आती है न अंग्रेजी, तेरी दोस्ती कैसे हो गयी… खैर, वो भी छोड़। काम कैसे चल पाया…लेकिन होता है न ऐसा! कभी-कभी की बात हुई तो थी पर बनी नहीं और ऐसे भी तो होता है कि जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गयी… और हमारी बातें बनती ही चली गयीं। फिर ये भी तो कहते हैं – दिल की बात जुबान से नहीं, आंखों से बयां होती हैं। कहीं, कभी कुछ भाषा की वजह से नहीं अटका, बल्कि बातों से तो बना ही बना, बात ही बन गयी।

ऐसे लोगों को सरकस में बंद करो!

हां! बात बिगड़ी भी। ऐसे लोगों की वजह से, जिन्हें देख के लगता… उफ्फ! सीधे जंगल से छूटे हैं। इन्हें फौरन सर्कस में बंद करो। जीप में लदे ढेरों उत्साही नौजवान अपने सुंदरतम कपड़ों, चश्मों और टोपियों में सजे वहां आते और टोपी के नीचे अपनी अक्ल छिपा बैठते। पंछियों-जानवरों को देखते ही जोर से शोर का तूफान उठता – ई देखो, वो वो!!! ये… याहू… के नारे लगते। सोचिए, पक्षियों का क्या हाल होता होगा! पक्षी तो पक्षी, बेचारे जानवर भी जान बचाके भागते। एक हठी ने हमारे सामने एक हाथी परिवार को खदेड़ दिया। वो हाथी के बच्चे की तस्वीर कुछ ज्यादा ही नजदीक से लेने चल पड़ा था… अब छेड़ने पर तो लड़की भी तमाचा जड़ती है, (जो नहीं जड़ती, उसे जड़ना चाहिए) वो तो हाथी है…



किसी जगह, किसी देश, किसी घर की पहचान वहां की इमारत से नहीं, लोगों से होती है। जैसे – कपड़े अच्छे थोड़े ही होते हैं, अच्छा तो आदमी होता हैं। अब कोई पूछे – कैसे थे वहां के लोग, तो मैं कहूंगी – वो इंसान थे। अनजान लोग भी मुझे प्यार से खिलाते, चाय पिलाते, तामोली (सुपारी) पेश करते। जुमोली नाम की एक लड़की ने सुरों-सी सुरीली, मिठाई से मीठी आवाज में असमिया गीत सुनाये और हाथ से बनी वहां की पोशाक भी भेंट की। रिश्ता? हम दोनों इंसान थे। वो मुझसे हिंदी में बात करने की कोशिश करते-करते अचानक असमिया बोलने लगती। बतियाते-बतियाते बहुत देर में याद आता कि ये मुझे समझ ही नहीं आ रहा होगा।

दिल-तमिल-हिंदी-दोस्ती

इस बात से एक बात और निकली है – बहुत साल पहले एक पांच साल का तमिलियन बच्चा मुझे मिला। वो देखते ही मुझसे चिपक गया और सुबह से लेके देर रात तक लगातार हम दोनों बात करते रहे।

मुश्किल से सोया, अगली सुबह फिर गप्पें शुरू। हमने घंटों, बल्कि कई दिनों बात की। मेरी उम्र 20 साल थी, उसकी पांच साल… उसे हिंदी नहीं आती थी मुझे तमिल। और अंग्रेजों की अंग्रेजी से तो खैर, हम दोनों ही महरूम थे। हां, हमें जो भी देखता, यही सोचता कि बेस्ट फ्रेंड्स हैं। सही है न! प्यार की बात होंठों से नहीं, आंखों से बयां होती है। वहां एक दिन खाना न खाओ, तब तो खैर लोग चिंता से आपको पलकों पर उठा लेंगे। कम खाओ तो पांच बार पूछेंगे – क्या बात है? पसंद नहीं आया, क्या खाओगे, कुछ और लाएं, तबियत ठीक नहीं?

यहां कुछ और भी लोग मुझे मिले। व्यापार की बागडोर यहां भी मारवाड़ियों के हाथ थी। पूरी-भाजी खिलाते एक मारवाड़ी को जब पता चला कि मैं जयपुर की हूं, तब उसने पूरी तसल्ली से सारी तफसील ली। फिर कहा – जहां सूरज नहीं पहुंचता, वहां भी मारवाड़ी काम करने जाता है। सच है, सूखे-रेतीले इलाकों के ये लोग दुनिया में दूर-दूर तक फैले हैं।

हैरानी की बात है, पर है कि वहां गाय हैं, भैंस हैं, घास भी है पर दूध नहीं है। 55 रुपये किलो दूध अमीर लोग बस बच्चों के लिए खरीदते हैं। खुद सुबह-शाम घर पर बनी चावल की ताजा सुगंधित बीयर पीते हैं और चाय काली नहीं, लाल पीते हैं। खैर, हमने वहां चाय की एक खूबसूरत थड़ी ढूंढ़ निकाली, जहां ताजे दूध की गर्म चाय की मीठी चुस्की ली जा सकती थी। अब जहां चाय होगी, वहां बात भी होगी। कॉलेज के कुछ लड़के-लडकियां वहां जमे गप्पें मार रहे थे। इतने में मैंने फोन पर शिलॉन्ग घूम आने की बात कही और वो वहीं से आ रहे थे। वो मेरे गाइड बन बैठे। इतने में उनका फोन बजा। पता लगा – वो जयपुर जा रहे हैं, सो मैं उनकी गाइड बन गयी और हम हंसे – दुनिया कितनी छोटी है न… है न?

तीस मार खां और घरेलू टाइगर

और हां, जंगल में बस जानवर ही नहीं मिलते, कुछ तीस मार खां भी मिलते हैं। जब हम आये, तब पता चला – एक और फोटोग्राफर आ रहे हैं। अब नाम नहीं बताऊंगी। कुछ दिन बाद एक सनकी से बुजुर्ग मिले। मुझे देखकर पूछा – आपको कहीं तास्केर दिखा? मैं उसकी तलाश में हूं। अपने कार्ड थमाते हुए बोले कि वो कितने बड़े फोटोग्राफर हैं और साक्षात अपने एलबम के साथ पधारे हैं। एलबम में जंगल की दुनिया की ऐसी नायाब तस्वीरें हैं, जैसी न आज तक बड़े-बड़े टीवी चैनल्स पर देखने को मिलती हैं, न मैगजींस में… वो अपनी खींची तस्वीरें किसी को दे ही नहीं सकते… हां! हम देखना चाहें तो जरूर दिखाएंगे।

उनके पास एक छोटा-सा कैमरा था, इतना छोटा कि हमारा बड़ा-सा लेंस शरमा जाए और वो बार-बार कह रहे थे – असली जंगली टाइगर की तस्वीरें हैं। ठीक है फोटोग्राफर साहब, लेकिन पालतू टाइगर भी होता है क्या? आवाज में दंभ का, दंभ में तंज का झोंका था कि आओ बच्ची! देखो, असली काम क्या होता है और कहते हुए उन्होंने वहां जितने लोग थे, सब को अपने कार्ड थमा दिये।

कुछ दिन बाद मैं अपने गार्ड अनिल दा से बतिया रही थी, तो उन्होंने बताया – एक पागल फोटोग्राफर आया था। यूं तो, सारे फोटोग्राफर्स टोपी वाले और आधे पागल होते हैं (ये मेरा कमेंट नहीं है) पर ये थोड़ा ज्यादा था। छोटा सा कैमरा लेकर जंगल में घुसता चला जाता और मैं कुछ कहता तो डांटता – अरे! हमने इतनी तस्वीरें खींची हैं टाइगर की। मुझे शक हुआ – ये वही तो नहीं थे तीस मार खां साहब! इतने में अनिल दा ने उनका कार्ड दिखाते हुए कहा – इतने लोगों को बांटता है ये कार्ड, मुझे तो डर है कि जानवरों को भी बांट दिया होगा।

कार्ड देखते ही मैं मुस्करायी – अरे! ठीक है, लेकिन एलबम देखे क्या? और उनके मुंह से ऐसे फूटा, जैसे आत्मा का बोझ हलका कर रहे हों – अरे बहुत ही बुरी थी।

सो, ऐसे बड़े-बड़े शेरखान भी जंगल में खूब मिले। फोटोग्राफर्स की बात चली है, तो एक बात और बता दूं। कुछ फोटो देखे, एक मरती हुई रायनो के, जिसके साथ बल्कि उसे छूते हुए सबने फोटो खिंचवायी थी। पता चला – मीटिंग (मिलन) के दौरान उस 2000 किलो के जानवर की मजबूत पीठ की हड्डी टूट गयी और भयानक दर्द सहते हुए उसने अपना सिर पटक-पटक कर आत्महत्या की। हां, जंगल में अमंगल भी होता है। पहले तो मैं नाराज हुई – मरती हुई रायनो को छूकर परेशान किया… चैन से मरने तो देते, लेकिन भोला-सा जवाब मिला – इसके अलावा हम कभी जिंदा रायनो को नहीं छू सकते थे। मैं होती तब, तो क्या करती? क्या रायनो के इतने करीब उसे छूने का मोह या लोभ छोड़ पाती? न! सहलाती जरूर…

पिघलता सूरज और बर्फ की रगों में शामिल होने की बेकरारी

लौटते हुए हिमालय की चोटियां दिख रही थीं, जैसे – बर्फ की सिल्लियां जोड़-जोड़कर बनाया हो और उस बर्फ पर गर्मागर्म सूरज पिघल-पिघल कर टपक रहा था। जैसे – सूरज का लाल बासंती रंग बर्फ की रगों में शामिल हो जाने को बेकरार हो उसमें तैर जाना चाहता हो। इस बेमिसाल मिलन की जद्दोजहद में कुछ और रंग भी फूट रहे थे।



जंगल पीछे, बहुत पीछे छूटता जा रहा था। ट्रेन के सफर में धीरे-धीरे बदलते हैं रास्ते के मंजर। रास्ते का हर पड़ाव मंजिल की और जाने का एक मकाम होता है लेकिन यहां तो दो घंटे के भीतर हजार सदियों का वक्फा बीत गया हो जैसे। लगा मुझे किसी टाइम मशीन में डालकर अचानक कहीं आगे, किसी बहुत नये अनजान समय में पटक दिया गया हो।

मैंने महसूस किया बहुत-बहुत तेजी से अपने अंदर घूमते पहिये को। इतना तेज कि लगा बहुत कट-पिट गयी हूं। थोड़े ही समय में मैं कह रही थी – उफ़! क्यों आयी मैं इस परेशानियों के शहर में। बेतरतीब घरों के बारे में अक्सर कहा जाता है न – घर को जंगल बना रखा है और बेतरतीब इंसानों को जंगली, लेकिन बहुत नाइंसाफी की है हमारी आदमजात ने जंगल को यूं बदनाम करके। नहीं, जंगल की फितरत जंगली नहीं, इसके मायने वहशी नहीं, बदमिजाज, बेलिहाज नहीं। हमारे घर, अपने शहर बिखरे भी हैं, बेतरतीब भी। यहां तारों से नहीं, धुएं से, इमारतों से ढंका आकाश हमें मिलता है, जरा सी बारिश पर धरती से बू उठा करती है, सोंधी-गीली खुशबू नहीं। जंगल एकदम करीने से सजा है। इंसानों ने बड़े मन से संवारा हो जैसे। सब चीज ठीक-ठीक जगह पर है, एकदम वहीं जहां होनी चाहिए। पक्षी डालों पर हैं, बिजली के तारों पर नहीं। मछली लहरों में खिलखिलाती हैं कांच के मर्तबान में नहीं। जंगल में हर ओर बिखरी फलियां देखी, पक्षियों की खाई, सूखी फली के बीज वाला हिस्सा ठीक गोलाकार छीलकर खाया गया था। इतने करीने से न आदमी खा पाये, न आदमी की बनायी मशीन। जब किसी को अच्छा कहना होता है, तब हम कहते हैं – वो इन्सान है, आप शौक से मुझे जंगली कह सकते हैं।

मेरे दिल में कहीं जंगल बसता है…

यूं, मुझे हमेशा से गुमान था कि मेरे दिल के एक कोने में कहां जंगल बसता है। मैं थोड़ी-सी तो जंगली हूं, लेकिन अब लगता है – मेरे भीतर दरअसल वही पूरी की पूरी सभ्यता है। मैं उसी समय, उसी जगह की हूं, इतनी जुड़ी हूं कि खुद को खुरच के भी उसे निकाल नहीं पाऊंगी। आप कभी जंगल जाएं तो खाली होके जाइएगा। जो खुद भरे रहे, तो जंगल को कहां जगह दे पाएंगे और हो सके तो अकेले जाइए।

जब हम अपने सबसे अच्छे मित्रों के साथ जाते हैं, तब अपनी एक बनी-बनायी दुनिया साथ ले जाते हैं। दिल का एक कोना हमेशा भरा ही रहता है, अरे जब वो खाली होगा, तभी तो अजनबी भी दोस्त बन पाएंगे।

और हां, जंगल में विचरते हुए खामोशी से जाएं, तब ही तो उसकी धुन सुनाई देगी। कभी-कभी खामोशियां भी बहुत कुछ कहती हैं। भोर के पंछियों की आवाजें, धरती पर बारिश की सरगोशियां, उड़ती हवाएं सुनना… सब आपके मन से बात करेंगे और तब आप भी अपनी आवाज सुन पाएंगे, वो आवाज जो शायद बरसों से न सुन पाये हों।

यूं, आज मुझे लगता है, मैं जंगल की ही हूं। मैं जंगल में अकेले विचर पाती हूं। जंगल से अपनी कहानी कह पाती हूं। उसे दिनों-दिन सुन पाती हूं। लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी। हम जो कुछ भी होते हैं, उसके पीछे ढेरों लोगों का प्यार साथ होता है। जो हमें वो बनाते हैं, जो हम हैं। मैंने जंगल में जाने की तमीज अपने पापा से पायी है। बचपन में वो अपनी साइकिल के आगे बिठाकर मुझे जंगल घुमाने ले जाते। मैं शोर मचाती, तो प्यार से कहते – “श्ह्ह्ह ये तुम्हारा घर नहीं है। हम पंछियों के घर में हैं। दूसरों के घर शोर नहीं मचाते।”

छुटपन में भरतपुर, रणथंबौर जैसे जंगलों में पापा के साथ खूब घूमी। बड़े होकर ढेर सारे प्रोफेशनल बर्ड वाचर्स से मिली। लेकिन एक के भी साथ जंगल घूमने का वो मजा नहीं आया। वो लोग एक बर्ड डिक्शनरी की तरह लगते और पापा की बातें पंछियों की आत्मकथा-सी होतीं। पंछी देखते हुए उनका चेहरा बच्चे सा खिलता। खुशनुमा हो जाता। फिर वो बताना शुरू करते। फिर मैं बड़ी हो गयी और मैंने अपने आप, अपनी पसंद की जिंदगी चुननी शुरू की। घूमी। पढ़ा। सुना। देखा। जंगल कुछ देर को कहीं पीछे रह गया।

बड़े होने की एक निशानी मुझे गुस्सा भी खूब आने लगा था। मैं अक्सर पापा के निश्छल चेहरे को देख के पूछती, “पापा आपको गुस्सा क्यों नहीं आता है?” और वो हमेशा कहते, “क्यूंकि मैं जंगलों में घूमा हूं। वहां आदमी सुनना सीखता है, देखना सीखता है”। शायद मेरे हाथ से जंगल कहीं छूट गया था, अब फिर मैंने उसे भागकर पा लिया है। इस बार गयी, तो पतझड़ था, फिर भी जंगल खूब गुलजार था। मन है – अबके बहार में जाऊं, बरसात में जाऊं। ये पेड़, ये पहाड़ियां मन करता है, हर एक को देख और छू आऊं, पूरी धरती को कदमो से सहलाऊं, हर इंसान, हर पक्षी, हर जानवर, हर पंछी, हर फूल, हर कांटे से बतियाऊं। मेरा ये स्वप्न पूरा होगा न?

Thursday, March 25, 2010

रूह से निकलता सच्चा सुर


--फहीमुद्दीन डागर



जयपुर दूरदर्शन के लिए मैंने शास्त्रीय संगीत से जुड़े कलाकारों पर आधारित धारावाहिक राग रेगिस्तानी का निर्माण, लेखन और निर्देशन किया। इसी धारावाहिक के निर्माण के सिलसिले में डागर साहब के घर, उनके साथ कई रोज बिताए। फ़िल्म बननी अभी बाकी है पर जेहन में कुछ तस्वीरें और बनीं हैं, जिन्हें यहां शब्दों के रंगों में ढालकर पेश कर रही हूं।


बाबा साहब ने आवाज़ दी...फिमा.... फ़ौरन आओ, बेहद जरूरी बात बतानी है। फिमा दौड़े आए, लेकिन बाबा....बुड्ढे हो चुके थे। जब तक फिमा पहुंचते, उनकी आंख लग गई, शाम भी ढल गई, गाढ़ा अंधेरा घिर आया। फिमा की नई-नई दुल्हन बुलाने आई—बाबा साहब तो सो चुके, सुबह बात कीजिएगा, लेकिन फिमा सिरहाने से हिले नहीं। बिना सुने कैसे जाएं! आधी रात गए बाबा की आंख खुली तो फिमा को नज़दीक बैठा देख चौंके। फिमा बोले, `आप कोई जरूरी बात बता रहे थे बाबा, कहिए! अब्बा बोले—बेटा, रात का तीन बज रहा है। अब तो हमें खुद याद नहीं, जाओ, सो जाओ! फिमा सीढ़ियां चढ़ कमरे की देहरी तक पहुंचे ही थे कि नीचे से फिर आवाज़ आई—अरे बेटा, जल्दी आओ, याद आ गया ,तानपुरा लेते आना। फिमा तानपुरा उठाए दौड़ पड़े। फिर जो तानपुरा छिड़ा, तो सुबह के दस बजे तक तरंग ही में रहा। ये एक दिन की बात नहीं...35 बरस तक ऐसे ही बहती रही है सुरों की नदिया...और उनमें भीगते रहे हैं फिमा।
बरसों लंबी कठिन साधना में शामिल ये किरदार हैं फिमा—फहीमुद्दीन डागर। ऐसे दिन-रात मिट के इन्होंने ध्रुपद की जो दौलत पाई है, वो सुर इस कदर सच्चे हैं कि सुनने वालों के दिल-ओ-दिमाग में ही नहीं ढलते, बल्कि उससे कहीं आगे, कहीं पार निकल जाते हैं। नहीं, फहीमुद्दीन डागर की कही बात, वो बात नहीं, जिसे जबान कहती है और कान सुनते हैं , ये तो वो आवाज़ है—जो रूह से निकलती है , जिसे रूह सुना करती है।
उनकी आवाज़ के रेशम से यूं मेरे दिल के तार, आज नहीं, बहुत बरस बीते जुड़ गए थे। कोई 20 बरस पहले उनके एक कार्यक्रम में हम कई बच्चे ज़मीन पर अगली पांत में बैठे थे।
गाते-गाते बीच में उनके खुशमिजाज़ चेहरे ने मुस्कराती आवाज़ में पूछा—'जानते हो बेटा....क्या होता है?’, फिर कुछ बताया और कहा—'समझे बेटा ?' तब समझी तो नहीं कि वो क्या बता रहे थे, लेकिन मुझ पर उस प्यार को ढालती आवाज़ का जादू असर कर गया।
ऐसे ही एक बात फिमा साहब अपने बचपन के बारे में कहते हैं, `हम तो बस सुनते रहते थे और बाबा, यानी वालिद अल्लाबंदे रहीमुद्दीन खान डागर कहते थे—बेटा! हम जानते हैं, हम जो भी कह रहे हैं, तुम्हारे सर के ऊपर से जा रहा है, लेकिन ये असर कर रहा है और वक्त आने पर अपने-आप उजागर हो जाएगा।‘
एक देहरी है जयपुर के आंगन में, बाबा बहराम खान की चौखट कही जाती है। 1927 में अलवर में जन्मे फिमा इसी देहरी से उठते सुरों की खुशबू दुनिया भर में ले जा रहे हैं। इसी देहरी पर पांच पीढ़ी पहले उनके पुरखे बाबा बहराम खान बैठते थे। कितने ही दिन, महीने, साल और दशक गुजरते रहे हैं...ध्रुपद गायकों की ये लड़ी शुरू हुई और इस कदर छाई कि आज दुनिया भर में ध्रुपद के मायने डागर और डागर के मायने ध्रुपद हो गया है। हां, कुछ लोग कहते हैं कि इनके यहां सबकी आवाज़ें एक सी हैं, तो बाबा साहब मुस्कुराकर कहते हैं, `हां, क्यूंकि वो एक सी बनाई जा रही हैं। ध्रुपद एक किरदार है, पवित्रतम रूप! ये चरित्र हमारे यहां तो नहीं बदलेगा।‘
और उनकी आवाज़ का बयां क्या करू...जबां ऐसी हलकी कि उस पर शब्द खनकते से लगते हैं...उनका संगीत इस दुनिया से पार ले जाता है। सुनते हुए लगता है—हम फूल से सागर की सतह पे तैर रहे हों। और वो कहते भी हैं—संगीत `सा रे गा मा’ नहीं है, ईश्वरीय नाद है। ईश्वर की जात निराकार और ये राग निराकार। जो दिखता नहीं और दिखे तो फिर ज़र्रे ज़र्रे में दिख रहा है। संगीत शांति का सिलसिला है। ये सेक्रीफाइस की चीज है।
उनसे ज़िक्र किया..ध्रुपद से डर जाने वाले आम श्रोताओं का, तो कहने लगे—सुनने वालों का क्या कसूर? भयानकता खत्म रखने की ताकत रखने वाले संगीत को आज खुद ही भयानक बना दिया गया है। मुंह ऊंचा करके गाने से सुर ऊंचा नहीं होता, ये नुमाइश की चीज नहीं है, चरित्र की बात है, ज्ञान की मंजिल है, जिससे सौम्यता आती है, भद्रता आती है। आज गाने वालों ने अशुद्ध मुद्रा, अशुद्ध बानी से इसे भयानक बना दिया है। ये गायक खुद संगीत और श्रोता के बीच अड़चन हैं। आप इसे अपने मिजाज़ से क्यों पेश कर रहे हैं। आप सुनाइए उस तरह ध्रुपद, जो इसका पैमाना है, फिर देखिए। कला पहले कलाकार के लिए है। पहले कलाकार अपने अंदर असर पैदा करें, तभी तो वो असर लोगों पर होगा।
वो कहते हैं—संगीत है—रागात्मक ,स्वरात्मक, शब्दात्मक, वर्णात्मक, तालात्मक, लयात्मक, सरस आत्मक। डागर साहब गंगा की बात करते हैं, ईश्वर की बात करते हैं और दुखी हो जाते हैं कि ज़माने ने इंसान को इंसान नहीं रहने दिया। जाने क्या-क्या बना दिया! वो कहते हैं—आप ये क्यों देखते हैं कि कौन कह रहा है? ये क्यों नहीं देखते कि क्या कह रहा है? इकबाल और तुलसी एक ही तो बात करते हैं—
ये विवाद इंसानों के हैं, धर्म तो सादगी देता है।
रहीम फहीमुद्दीन डागर को पद्म भूषण मिला, लाइफ टाइम अचीवमेंट से नवाज़ा गया, लेकिन ईनाम-इकराम एक तरफ, इतने सादे हैं साहब कि कुरते के बटनों में उलझ जाते हैं। उनकी साथिन कहती हैं, फहीम जी मुश्किल से मुश्किल राग लगा लेते हैं, लेकिन बटन लगाना इनके लिए बड़ा काम है।
यूं, मैं उनका बयान क्या करूं, सूरज का बयां कौन करे ? मैं तो नज़र में भरने गई थी, इस रोशनी से दिल और आत्मा भर के लौटी हूं। ये खामोशी को ढालती आवाज़ है, सुन के लगता है—सागर किनारे बैठे हैं, रोशनी छुई है, हवा से होके गुजरे हैं।
(दैनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित)

Wednesday, March 24, 2010

दिल में शहद घोलती मिसरी ज़बान


अब्दुल राशिद खां साहब



दर्शक दीर्घा में लोग सांस थामे बैठे थे। एनाउंसमेंट थी कि 103 वर्षीय बुजुर्ग मंच पर गाएंगे। इंतज़ार से कुर्सियों में सरगोशियां थीं, पहलू बदले जा रहे थे, गर्दनें ऊंची हो रही थीं, फिर मंच पर एक फ़रिश्ता उतरा। सफ़ेद झक चांदी के बादल जैसे बाल। नूरानी आंखें...और सुनने वालों के कानों में ही नहीं, दिल में भी शहद घोल दे, ऐसी मिसरी ज़बान। उस पर जेहन की नरमाई देखिए कि 103 वर्षीय मंच पर बैठ कर कहते हैं, मैं जिस उम्र में आ पहुंचा हूं, उस उम्र में हाथ-पैर ठिकाने नहीं रहते, दिमाग ठिकाने नहीं रहता, आप सब गुणीजन बैठे हैं, मैं कुछ ग़लत गा दूं, तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा। कहते हैं, सुरों के नूर से आत्मा पवित्र होती है, और किसी को देखनी हो इस नूराई की चमक, तो आए, मिलें उस्ताद अब्दुल राशिद खां साहब से। सुनने वाले दम साधे बैठे थे कि कुछ सुन लें, बल्कि कुछ भी सुन लें। कहीं खुसुर-फुसुर भी थी कि इस उम्र में आह कितना तो गा पाएंगे...लेकिन उस्ताद ने जो रागेश्वरी छेड़ी, तो सुनने वालों की आत्मा जब्त हो गई। मियां तानसेन के दूसरे बेटे सुरत सेन के 23वीं पीढ़ी के वशंज उस्ताद अब्दुल राशिद खां साहब 1901 में जन्मे हैं। वो उन उस्तादों में से हैं, जिनके सुरों के इशारे दिल तो क्या, मौसम भी मानते हैं...लेकिन उस्ताद साहब के पिताश्री ऐसा नहीं सोचते थे—
`मेरे घरवालों का ये ख़याल था कि लड़का गा-बजा नहीं पाएगा। इसे किसी और काम में डाला जाए। फिर 11 साल की उम्र में एक ऐसा हादसा हो गया, कि ज़िद पकड़ ली, अब तो गा के दिखाएंगे।‘
फिर जो तालीम शुरू हुई, बाईस साल चली। ईशा की नमाज़ से जो रियाज़ शुरू होता, तो फजीर की नमाज़ तक तानपुरा सधा ही रहता।
10 साल तक लगातार मार-मार कर खूब रियाज़ लिया गया, तब कहीं जाके इजाज़त मिली—हां! अब बाहर गा सकते हो।
जो जज़्बा है उनमें, वो उसी रियाज़ की बड़ाई तो है...इस उम्र में भी 3-3 घंटे तक लगातार गाते हैं उस्ताद साहब, जिस्म कांपता है...लेकिन सुर नहीं कंपकंपाते।
संगीत की शिक्षा में पुराने तरीके के कायल हैं उस्ताद साहब। सीना-ब-सीना बैठकर सीखने पर ही ये हुनर रंग लाता है...। वो नए रागों के प्रयोगों के ख़िलाफ़ कुछ कहते नहीं हैं, लेकिन एक किस्सा बताते हैं—वो और बड़े गुलाम अली खां साहब बैठे थे...। एक नए गवैए आए, मज़ीद नाम था उनका। उन्होंने कलावती गाकर सुनाई और जब गा चुके तो बड़े गुलाम अली खां ने कहा, ज़रा भंभाली गाना। फिर जो भंभाली शुरू हुई, तो ना वे रहे, ना हम...ना रही कलावती, सबके सब खो गए...। हमने पूछा—मियां, हमारे यहां के राग क्या कहीं कम पड़ते हैं, या जो नए राग बने, वो क्या कुछ ज्यादा जादू कर पाते हैं, जो हम दूसरे राग बनाएं।
हज़ारों बंदिशें रचने वाले उस्ताद साहब कहते हैं—ये बंदिशें हमारे परदादा चांद मोहम्मद की जूतियों का सदका हैं...जिन्होंने चार लाख बंदिशें रचीं। हम बचपन में रचते, उन्हें सुनाया करते, फिर उन्होंने ही हमारा नाम रख दिया—रसन और कहा कि बंदिशों में डाला करो, लेकिन शब्द ऐसे हों कि राग का चेहरा ही सामने आ जाए।
यूं तो, सफ़ा-दर-सफ़ा ज़िंदगी की तस्वीर में कितना कुछ बदलता है। उस्ताद साहब ने तो सौ साल के समय चक्र में संगीत के सफ़र को देखा है। बीतते ज़माने के किस्से जो लोग कहते-सुनते हैं, कहानियों को जिया है।
संगीत की महफ़िल दरबार से उठकर मंच की मजलिस हो गई...लेकिन उस्ताद साहब गुज़रे ज़माने को याद करते हैं, दरबारी समय का एक किस्सा बताते हैं...उस समय सुनने वाले ऐसे चीदा चुनिंदा जो कान रखते थे...। गायक ने ज़रा गलती की और पकड़ लिए गए। और आजकल तो मंच पर गाइए, चाहे जो गाइए, और चले जाइए. कोई कुछ नहीं कहेगा...बस खत्म।
वो कहानियां हमारी कान-सुनी भी नहीं हैं, वो आंखों-देखी बयां करते हैं। एक और किस्सा वो याद करते हैं—ग्वालियर के एक राजा थे—ऐसे सुरीले कि जिस प्याले में खाएं, वो भी सुरीला होना चाहिए...। जो हुक्का पिएं, वो भी सुर में गुड़गुड़ाए। हम और हमारे पिता जी दरबार में पहुंचे। और पिता जी ने कहा—तुम राजा हो, तुम गाना सुनोगे और वो भी हमारा? तुम क्या गाना सुनोगे, सुनने के लिए कान चाहिए...और कहकर दरबार से मुड़ लिए। सिपाहियों ने पिस्तौलें निकाल लीं...पर राजा चुप रहे। हमारी बड़ी हालत खराब हुई।
हमने रात दुआ मांगते गुजर की पर पिता जी खर्राटे भरते रहे...एकदम बेफ़िक्र। सुबह फिर तैयार हो गए दरबार जाने को...। हमने सोचा, ये बड़ा ग़ज़ब हुआ...कल जो हुआ, वो हुआ और आज जो होगा, वो ना जाने क्या होगा।
दरबार पहुंचे, पिता जी ने झुककर मुस्कराते हुए सलामी दी...। राजा जी ने पूछा, मिजाज़ कैसे हैं...इच्छा हो तो कुछ सुनाइए। उन्होंने कहा, जैसा आपका हुक्म। और जो गाना शुरू किया तो क्या दरो-दीवार, क्या राजा और क्या सैनिक, जिन्होंने कल पिस्तौलें निकाली थीं, सबके सब रो दिए। राजा ने सैनिकों से पूछा—क्या किया जाए, इन्हें मार दिया जाए। सबने कान पकड़ लिए। राशिद खान संगीत की दुनिया की एक थाती हैं...उनके काम को, अंदाज़ को, गायकी के अनूठेपन को संजोना बहुत ज़रूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को सरगम की विरासत सौंपी जा सके।
ये बात उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ और आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी, कोलकाता ने शिद्दत से महसूस की। यही वज़ह है कि इन दोनों संस्थाओं ने राशिद जी की 1500 से ज्यादा बंदिशें रिकॉर्ड भी कीं।
इस मुल्क में एक ताजमहल है, मोहब्बत का ताजमहल और संगीत की इस दुनिया में सुरों के ताजमहल हैं उस्ताद अब्दुल राशिद, जो ध्रुपद भी गाते हैं...धमाल भी गाते हैं...खयाल भी गाते हैं और चैती और ठुमरी भी गाते हैं—और जब पूछा जाए कि उन्हें विशेषतः क्या पसंद है...तो कहते हैं—स्वर ऐसा लगे, दिल को छू जाए। सुनने वाली की रूह में बैठ जाए। बस वही सारी गायकी है, उसके मुकाबिल चाहे हज़ार तानें मार लें, ध्रुपद गा लें, या ठुमरी। जिस का लगाया स्वर दिल में, दिमाग में बैठ जाए, बस उसी का बेड़ा पार है।
उस्ताद अब्दुल राशिद सुरों का दरिया हैं। ये सिद्ध प्राप्त लोगों में से हैं, जो चाहें तो हंसा दें, चाहें तो रुला दें। ढेरों झरनों सा उफान भी है उनके सुरों में और नदी की मखमली मद्धम कल-कल का जादू भी। बीबीसी और इराक रेडियो ने अंतररष्ट्रीय स्तर पर इन्हें रिकॉर्ड किया।
राशिद साहब कहते हैं—हम दुनियाबी सम्मानों के कायल नहीं...असली सम्मान तो वो है कि ऊपरवाला सामने दिख जाए। साहब जैसे खूबसूरत और हुनरमंद इंसान को ईनाम-इकराम की ख्वाहिश नहीं होती, लेकिन कई संस्थाएं इन पर सम्मान पुरस्कार खूब लुटाती रही हैं। उप्र संगीत नाटक अकादमी ने 1981 में सम्मानित किया, बीएचयू ने 93 में। संगीत महर्षि. संगीत सरताज, रससागर और बंदिश सम्राट जैसी उपाधियां भी उस्ताद को मिल चुकी हैं।
(दैनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित)

Wednesday, February 4, 2009

बस एक कप और !!......


लेख शर्तिया गर्म कर देगा आपका दिल।लिखने की सारी जरूरी चीजे मेरे पास मौजूद हैं,दिल में गर्माहट है ,दिमाग में गुनगुनाहट ,और गिलास में भरी है चाय ! चा ...की चाशनी से मुस्कराहट भरी की नही ?
सुबह ,सुहानी सुबह कब होती है? जब आँख खुलने से पहले दिल और आँख को इत्मीनान हो की सपना पूरा हो चुका है,हमदम जाग चुका है (जिनके हमदम है ),अखबार आगया है ,और बिस्तर के पास वाली मेज़ पर है चाय ,और चाय में गर्मी भी बाकी है ....वाह...ताजगी का मज़ा आया न !गर्म चाय उतनी ही खुशनुमा होती है जितना हमारा दिल खुशी के वक्त गर्म होता है ।
ताजगी और जागने का जितना सम्बन्ध है चाय से उससे ज्यादा नींद और सुलाने से है । क्यूंकि सपने नींद में ही आते हैं और सपने जगाने का काम चाय बखूबी करती है । खीज भरा मूड हो तो भी चाय का प्याला हाथ में आते ही सपने करवट लेने लगते हैं ....सजने लगते हैं ...उनके पूरे होने के प्लान भी बन्नने लगते हैं ।
चाय का गिलास हाथ में आते ही गर्म हो जाती हैं उंगलिया और घूँट अन्दर जाते ही दिल भी गर्म हो जाता है । दिल गर्म होता है तो पिघल पिघल कर बहती है गर्माहट शरीर और मन में और उबाल मार कर उबल उबल कर दिल के कोने कोने से बहार आती हैं बातें । दिल की बातें तो फिर भी दबी होती हैं चाय के बिना तो होठ पर रखी कहानी तक बहार आने से मन कर दे । गुनगुनी चाय ,गुनगुना साथ ,गुनगुनी बात ,गुनगुनी मुस्कान ...गर्म चाय गर्म हँसी ...जितनी दिलो में गर्माहट उतने बढ़ते प्याले...चाहे तो गिन लीजियेगा । दोस्ती बढ़ने के साथ बढती है प्यालो की गिनती ..दूरी कम होती है तो चाय ज्यादा ।
ढेर सारी शामे ,ढेर सारी सुबहे ,देर तक पकी चाय और पकता प्यार ,गहरा होता चाय का रंग और गहराती दोस्ती ।
मैंने ढेर सारा वक्त घुमते हुए बिताया ,कुछ ऐसी जगह गई जन्हा बिजली नही थी ,फ़ोन नही था पर २ चीजे हर जगह थी एक चाय की थडिया दूसरा पार्ले जी । मुझे लगता है अगर आप सचमुच शहर की नब्ज जानना चहते हैं तो वंहा की थडियों पे जाए। न म्यूज़ियम ,न पुराने पड़ते महल,न मन्दिर न बाजार आपको शहर के दिल के बारे में बता सकते हैं लेकिन चाय की थडी पर सुबह ,दोपहर , श्याम और रात जाए और आपको पता चल जाएगा शहर की धड़कन का हाल क्या है । चाय रंग बदलती है ...महक बदलती है ...स्वाद बदलती है ...अंदाज़ बदलती है ...प्याला बदलती है ...और अनजान को जान-पहचान में बदलती है ,जान-पहचान को दोस्ती में ,दोस्ती को प्यार में और जब प्यार भी होगया तो और क्या... बच्चे की जान लोगे अब ?
चाय को चाय न कहते बहाना कहते हम । बाहाना मिलने का ,बहाना साथ का ,बहाना कुछ देर और बात का ...चाय पकडाने के बहाने उंगलियों का टकराना..चाय ..प्यार के पहले स्पर्श का बहाना ।
चाय पहली बार में अक्सर जुबां जला देती है जो हमेशा याद रहता है पहले चुम्बन की तरह ।
पहला कप-चाय से पहली मुलाकात हुई दादी के साथ ..चाय के २ समय होते हैं ,सुबह ७ बजे और श्याम ४ बजे । लेकिन बच्चे खासकर लड़कियों को चाय नही पीनी चाहिए रंग कला हो जाता है । लेकिन शाम की चाय पे हमेशा मई उनके साथ रही । रंग की चिंता नही वो पहले से ज्यादा पत्ति वाली गाढे दूध की चाय जैसा है।

दूसरा कप-दूसरी मुलाकात पापा माँ के साथ ...एक तो वो दिवारी अखबार निकला करते थे जिन्हें चाय की थदियो पर चिपकाने भाई और मैं सुबह सुबह जाते थे,फिर माँ पापा के साथ वंहा बात करने .फिर हमारे घर में सन्डे को इतनी चाय बनती थी की लगता था हम चाय वाले ही हैं । बाकायेदा एक बन्दे को चाय की जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी । हमेशा मुझे ।
तीसरा कप - यात्राओं के दौरान ...ट्रेन में चाय ...ऊपर की बर्थ पर किताब मैं और चाय ..चाय पर चाय ..आवाज़ दे कर रोकना और ट्रेन के हिलते हिलते सँभालते हुए चाय ।
चौथा कप-स्कूल ऑफ़ फाइन आर्ट्स में चाय !जितनी गर्मी चाय में उतने गर्मी रंगों में। प्रैक्टिकल यानी मूर्ति व चित्र बनाने के हमे ५ घंटे मिलते थे । एजिल पर कैनवास होता याँ मूर्ती याँ कभी मिटटी या रंगों का ढेर पर लगातार एक कप ज़रूर होता था चाय का...जैसे इजिल पर रखी चाय की भाप से ही चित्र बन्ने हो ,मिटटी उशी भाप में पिघल कर हाथो से मुडती थी । सपने ऐसे ही चाय की भाप में पिघल कर उबलते हैं और मुँह से छिटक कर बाहर आते हैं।

कप ५-नाटक मंडली और चाय ...चाय की दूकान के सामने बडा सा बरगद का पेड़ था जिससे बचते हुए कुछ एक किरने रौशनी की अन्दर आही जाती थी और दूकान में अंधेरे से लड़ने को था ४० वॉट का बल्ब और थे हम ...पूरी दुनिया से बोर,थके हुए ..नाराज़ ...वंहा लंच की जगह चाय ही और जितनी दिल की बेहाली, बाहाली को उतनी ही चाय । इस दोरान हमने २ नये शब्द भी इजाद किए -१ च्यास ...प्यास पानी की और च्यास चाय की ...२ चाय्ची ,अफीमची सा चाय्ची ।
घर से ४ कदम दूर भी चाय ..तो माँ ने कहा यार घर आकर ही पी लिया करो और ३ रुपये हमे दे दिया करो ।
छठा कप - अब मैं जयपुर से दिल्ली में थी तो दिल के साथ चाय भी यंही चली आई ..यंहा एक दम अलग मंज़र है । चाय की ढेरो थडिया हैं अड्डे हैं । आप चाहे एक लाख रु महीना कमाए याँ एक हज़ार ..एक साथ चाय पीजिये । एक साथ कहानी ,फ़िल्म ,फैक्ट्री, कॉल सेण्टर ,घर ,रिक्शे की बातें होंगी,आपको अपने यंहा के भी लोग ज़रूर मिलेंगे । सोहार्द है पक्का । ज्यादा दूध या ज्यादा पानी सब एक साथ है यंहा ।
बात और प्यार में रुठाई तो होती ही है ...चाय से भी एक बार मैं तीन दिन बोली । हुआ यूँ की घर भरा था दोस्तों से ,रसोई भी लबालब थी बातो से और बडा भगोना भरा था चाय से ... कप चाय से । और ढालते वक्त वो चाय मेरे प्रेम में ऐसी पागल हुई की कप की जगह मेरे पैरो में गिर पड़ी ..सारी की सारी!तब तीन दिन तक चाय पीना क्या चाय का नाम सुन कर भी मैं डर कर वापस सो जाती थी ।
फिर एक बात ...एक जापानी घुम्मकर से मिली एक बार उनके गले में कैमरा था और पीठ पर बैग ,पीठ के बैग में थी किताबे और उनकी पसंद के टी बैगस। (अब हमारी चाय पीना सब के बस में कंहा???होठ चिपक जाते हैं)मुझे उन्होंने एक किताब और कुछ टी बैग दिए ...किताब के दोरान साथ में चाय !
चांदी सी केतली से ढलती है चाय, रिश्तो से कांच के प्यालो में चाय । प्यार सी गर्माहट सी चाय । चाय की ढेरो थदियाँ बनी हैं ताजमहल ......जन्हा प्रेमी अपने प्रेम को याद करते भरते हैं घूँट चाय के ,जन्हा प्रेम अपने प्रेम के साथ पीते हैं चाय एक के बाद एक स्पेशल चाय । ये ताजमहल उस ताजमहल से जरा भी छोटे नहीं ।
एक कप और .....अभी ढेर कप बाकी हैं मेरी चाय के ,फिलहाल दोस्त के गर्म हाथो सा चाय का लबालब भरा गर्म प्याला और उसको पिलाने वाला चाय्ची मेरा इंतज़ार कर रहा है ...............