Tuesday, February 21, 2012

पचास साल से जगमगाता है एक तारा


जनसत्ता में छपा मेरा लेख,यंहा साभार ...

अंधेरे और आंसुओं का रिश्ता पुराना है न? एक पूरी दोपहर थिएटर के अंधेरे में एक फ़िल्म मुझे रुलाती रही, पल भर को नहीं हंसाया, फिर भी मेरी पसंदीदा हो गई। फ़िल्म थी--मेघे ढाका तारा।
इस बरस मेरी पसंदीदा फ़िल्म की उम्र 50 पार हो गई। देशी-विदेशी कई फ़िल्मी उत्सव इसके 50 साल होने का जश्न मना रहे हैं...मेघे ढाका तारा को याद किया तो ख़याल आया--इंसान की उम्र कितनी है? जितनी वो जी ले...और जो न जी पाए, वो मौत। और ऐसा नहीं होता कि हम अंत में ही मरें! जीते जी न जाने कितनी बार मरते हैं और फिर ज़िंदा होते हैं। ता-उम्र ये जिंदगी बड़ी लुका-छिपी खेलती है न! और कभी-कभी जब हाथ आती है, बीत जाती है।
इतनी उदासी भरी बातें! मेघे ढाका तारा की नायिका नीता की ज़िंदगी ही ऐसी थी, खूब उदास कर गई और मन क्या, चेहरा तक भिगो गई। घर भर से अलग अपने कमरे के जहां में चोरी-चोरी प्रेमी का ख़त पढ़ते हुए नीता की ख़ुशी उसकी आंखों से झांकती है। फिर प्रेमी लिखता है--तुम मेरा बादलों में छिपा तारा हो और नीता की आंखों से शर्मा कर झांकती हंसी चेहरे के सब दरवाज़े पलटकर नीता पर बिछ जाती है और उसके होंठों पर, आंखों में ज़िंदगी की हर बहार, हर ख़ुशी नाचने लगती है।
...लेकिन अब मेरा दिल करता है, काश ये नीता इसी वक्त पलट जाए और कहे--सुनो तुम्हारी ये चाल नहीं चलेगी। मैं अब और बादलों से ढकी नहीं रहूंगी और कम से कम ये सुन खुश तो बिलकुल ही नही होऊंगी कि मैं बादलों से ढका मद्धम कोई तारा हूं और जो ये सुनूंगी तो सवाल करूंगी--तुमसे और खुद से भी कि क्यों हूं मैं छिपी-ढकी और अगर हूं, तब ऐसे खुश क्यों हूं? मैं क्यों नहीं हूं उजाले का पूरा चमकदार सूरज। काश नीता तभी कहती--नहीं, मैं नहीं हूं मेघे ढाका तारा। मैं तो उजाले का पूरा चमकता सूरज बनूंगी...आकाश पर राज करता सूरज।
लेकिन नीता नहीं पलटी और बाकी सभी ने उसके बादलों में छिपे होने की तारीफ की और फायदे में भी रहे। नीता को आसमानी देवी बना दिया और खुद ज़मीनी इंसान रहे। अब देवी की तो कोई भौतिकी होती नहीं तो भौतिक लालसाएं कैसी और इंसान तो लालचों से ही पगा है...।
नीता कमाती रही और अपनी टूटी चप्पलें पैर में, पैबंद लगी साड़ी मुस्कुराहट में छिपाती रही, तो कमाई का क्या करती थी नीता? अरे--पिता को घर बनवाना है, मां को घर ठीक से चलाना है, बहन को गहने चाहिए, छोटे भाई को खेल वाले खास नए जूते, प्रेमी को कॉलेज की फीस और बड़े भाई को तो दाढ़ी बनाने तक के पैसे और नीता को? नहीं--नीता को कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि नीता महान भारतीय मां की जीवंत मूरत जो है। अब मां की तो सब इच्छाएं बच्चों के ही लिए होती हैं न! और जिस मां की इच्छाएं अपने लिए रह जाती हैं, वो भी कभी महान हुई है भला? नीता सबको पालने ही के लिए जन्मी थी और सब पलते रहे।
आखिर तक आते-आते अब नीता प्रेम पत्र की तरह अपने क्षय रोग को छिपा रही है, फिर अकेला कमरा...सेनिटोरियम की ख़ामोशियों में फिर वही पत्र पढ़ते, लेकिन इस बार उसने वो पत्र उड़ा दिया और ये क्या--वो रो पड़ी और ऐसा वैसा नहीं, ऐसी रोई कि पूरी प्रकृति उसके क्रंदन से विचलित उसके साथ चीख रही है और चीख चीख कर कह रही है--मुझे मेघे ढाका तारा नहीं होना, मुझे मेघे ढाका तारा नहीं होना, मैं जीना चाहती हूं...।
यूं, वो समय खूबसूरत फिल्मों के सच्चे किरदारों का था, भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग था। पथेर पांचाली और भुवन सोम जैसी फ़िल्में आकार ले रही थीं और सब में महिलाएं थीं, वास्तविक महिलाएं, लेकिन ये वो पहली फ़िल्म थी, जिसने स्त्री की भीतरी जद्दोजहद की बात रखी। बाकी फ़िल्मों में स्त्री घर का, समाज का हिस्सा थीं और ये फ़िल्म स्त्री के समाज, स्त्री होने के संघर्ष और स्त्री के अन्दर-बाहर की दुनिया बयां कर रही थी। एक नहीं, तीन स्त्रियां--मां, बहन और नीता। तीनों के तीन स्वभाव, तीन स्वभावों के तीन तरह के संघर्ष।
आप ये न मान लीजियेगा कि ये फ़िल्म किसी रोती-बिसूरती दबी-कुचली नायिका की कहानी थी, ये कहानी थी--स्त्री के प्रति खेली चालों की। एक सजग समर्थ स्त्री अपनी संवेदनशीलता में कैसे इन चालों का मोहरा बनती है। ये फ़िल्म स्त्री की भौतिक, दूसरों की उपजी गुलामी नहीं, गुलाम मन की कहानी थी, जिसमें उसके सपने तक अपने नहीं, उन्हें वो अपने लिए नहीं देख पाती। बाकियों के बड़े-ऊंचे सपने पूरा करना ही उसके अपने सपने हैं।
एक पूरी पीढ़ी आर्थिक आत्मनिर्भरता से उपजे आत्सम्मान का स्वाद नहीं पा सकी। उसका कमाया धन उसके लिए कोई मुक्ति, उन्मुक्तता, स्वावलंबन नहीं ला पाया, बल्कि वो नीता की तरह घर और बाहर, दोनों ही जगह कामों में पिस गई। उनके कमाए धन को या तो हालात की मज़बूरी का नाम दिया गया या फिर अवांछित मान लिया गया, लेकिन उनकी कमाई धनराशि कभी भी सम्मान का गौरवपूर्ण पद नहीं पा पाई।
मेरी मां की सहेली के पति ने शर्त रखी थी--तुम नौकरी तो कर लो, लेकिन तनख्वाह नहीं लोगी, आर्थिक ज़िम्मेदारी मेरी है। मुझे लगेगा--मैं ठीक से नहीं निभा रहा हूं, जो तुम्हें नौकरी करनी पड़ी। मेरी एक मित्र कहती थी कि नौकरी करके घर जाओ, तब सब ऐसे घूर रहे होते हैं, जैसे--कोई अपराध करके लौटे हैं। अपने मूल काम से इतनी देर गैरहाजिर जो रहे, सो मैं सीधे रसोई में घुस जाती हूं।
देखिए, हो गए न फ़िल्म को 50 साल! अपने समाज की, परिवार की कहानी ही तो मेघे ढाका तारा कह रही है। यूं, ऋत्विक घटक की हर फ़िल्म के साथ अन्याय हुआ। उन्हें या तो कभी डॉक्यूमेंट्री कह कर, कभी मेलोड्रामा कह कर नकारा गया, लेकिन ऋत्विक की मृत्यु के बाद उन्हें विश्व के सबसे महान निर्देशकों की पंक्ति में बिठा दिया गया और उनकी फ़िल्में विश्व की सबसे ज़रूरी फ़िल्मों में से एक हो गईं।
मेघे ढाका तारा इसलिए भी ज़रूरी है, क्यूंकि नीता यही नहीं, नीता वो भी है, जो उसे दया पात्र बनाते नायक से कहती है--कोई बात नहीं, ये मेरी ही गलतियों की सज़ा है, जो मुझे मिल रही है।
तुमने क्या गलती की का वो जवाब देती है--मैंने विरोध नही किया।
ये फ़िल्म देखते हुए मुझे लगा--मैं आईना देख रही हूं। मेरी मां की कहानी परदे पर फ़िल्म बनकर चल रही है शायद, नानी की या मेरी...और मन कर रहा था--ये कहानी बदल जाए, किसी सूरत में ये हालात बदल जाएं। मैंने सैकड़ों बार बोला--मैं मेघे ढाका तारा नहीं होऊंगी।
मैं तो ये कह रही थी, लेकिन तभी फ़िल्म में ठीक नीता-सी एक और लड़की, नीता के आने के पुराने रस्ते से टूटी चप्पल में लंगड़ाती, अंगूठों के बीच चप्पल संभालती निकली।
आप भी ये फ़िल्म देखिए, आपको इसमें अपनी या किसी अपने की सूरतें नज़र आएंगी और, और इच्छा होगी, दिल कसमसाएगा कि नीता जिए, नीता के बाद किसी और लड़की की ज़िंदगी की राह में वो रास्ता न आए। हमारी दुनिया का ये सूरते हाल बदल जाए।
मैं हॉल से बाहर आई शाम हो चुकी थी और देखते, न देखते बादल घिर आए, फिर झमाझम जो बूंदें दमादम बरसीं...सितारों पर छाए सब बादल छंट गए। मैं खूब भीगी! उस शाम इतने बादल कैसे बरसे? शायद, आकाश के हर एक तारे ने चमकना, दिखना चाहा होगा...तो हालत कैसे बदलेंगे? हम भी अपने-अपने हिस्से का जोर लगाएंगे, हम मेघे ढाका तारा नहीं होंगे।
तो जिंदगी की उम्र कितनी है? जितनी है, पूरी जी लें।