Wednesday, March 24, 2010

दिल में शहद घोलती मिसरी ज़बान


अब्दुल राशिद खां साहब



दर्शक दीर्घा में लोग सांस थामे बैठे थे। एनाउंसमेंट थी कि 103 वर्षीय बुजुर्ग मंच पर गाएंगे। इंतज़ार से कुर्सियों में सरगोशियां थीं, पहलू बदले जा रहे थे, गर्दनें ऊंची हो रही थीं, फिर मंच पर एक फ़रिश्ता उतरा। सफ़ेद झक चांदी के बादल जैसे बाल। नूरानी आंखें...और सुनने वालों के कानों में ही नहीं, दिल में भी शहद घोल दे, ऐसी मिसरी ज़बान। उस पर जेहन की नरमाई देखिए कि 103 वर्षीय मंच पर बैठ कर कहते हैं, मैं जिस उम्र में आ पहुंचा हूं, उस उम्र में हाथ-पैर ठिकाने नहीं रहते, दिमाग ठिकाने नहीं रहता, आप सब गुणीजन बैठे हैं, मैं कुछ ग़लत गा दूं, तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा। कहते हैं, सुरों के नूर से आत्मा पवित्र होती है, और किसी को देखनी हो इस नूराई की चमक, तो आए, मिलें उस्ताद अब्दुल राशिद खां साहब से। सुनने वाले दम साधे बैठे थे कि कुछ सुन लें, बल्कि कुछ भी सुन लें। कहीं खुसुर-फुसुर भी थी कि इस उम्र में आह कितना तो गा पाएंगे...लेकिन उस्ताद ने जो रागेश्वरी छेड़ी, तो सुनने वालों की आत्मा जब्त हो गई। मियां तानसेन के दूसरे बेटे सुरत सेन के 23वीं पीढ़ी के वशंज उस्ताद अब्दुल राशिद खां साहब 1901 में जन्मे हैं। वो उन उस्तादों में से हैं, जिनके सुरों के इशारे दिल तो क्या, मौसम भी मानते हैं...लेकिन उस्ताद साहब के पिताश्री ऐसा नहीं सोचते थे—
`मेरे घरवालों का ये ख़याल था कि लड़का गा-बजा नहीं पाएगा। इसे किसी और काम में डाला जाए। फिर 11 साल की उम्र में एक ऐसा हादसा हो गया, कि ज़िद पकड़ ली, अब तो गा के दिखाएंगे।‘
फिर जो तालीम शुरू हुई, बाईस साल चली। ईशा की नमाज़ से जो रियाज़ शुरू होता, तो फजीर की नमाज़ तक तानपुरा सधा ही रहता।
10 साल तक लगातार मार-मार कर खूब रियाज़ लिया गया, तब कहीं जाके इजाज़त मिली—हां! अब बाहर गा सकते हो।
जो जज़्बा है उनमें, वो उसी रियाज़ की बड़ाई तो है...इस उम्र में भी 3-3 घंटे तक लगातार गाते हैं उस्ताद साहब, जिस्म कांपता है...लेकिन सुर नहीं कंपकंपाते।
संगीत की शिक्षा में पुराने तरीके के कायल हैं उस्ताद साहब। सीना-ब-सीना बैठकर सीखने पर ही ये हुनर रंग लाता है...। वो नए रागों के प्रयोगों के ख़िलाफ़ कुछ कहते नहीं हैं, लेकिन एक किस्सा बताते हैं—वो और बड़े गुलाम अली खां साहब बैठे थे...। एक नए गवैए आए, मज़ीद नाम था उनका। उन्होंने कलावती गाकर सुनाई और जब गा चुके तो बड़े गुलाम अली खां ने कहा, ज़रा भंभाली गाना। फिर जो भंभाली शुरू हुई, तो ना वे रहे, ना हम...ना रही कलावती, सबके सब खो गए...। हमने पूछा—मियां, हमारे यहां के राग क्या कहीं कम पड़ते हैं, या जो नए राग बने, वो क्या कुछ ज्यादा जादू कर पाते हैं, जो हम दूसरे राग बनाएं।
हज़ारों बंदिशें रचने वाले उस्ताद साहब कहते हैं—ये बंदिशें हमारे परदादा चांद मोहम्मद की जूतियों का सदका हैं...जिन्होंने चार लाख बंदिशें रचीं। हम बचपन में रचते, उन्हें सुनाया करते, फिर उन्होंने ही हमारा नाम रख दिया—रसन और कहा कि बंदिशों में डाला करो, लेकिन शब्द ऐसे हों कि राग का चेहरा ही सामने आ जाए।
यूं तो, सफ़ा-दर-सफ़ा ज़िंदगी की तस्वीर में कितना कुछ बदलता है। उस्ताद साहब ने तो सौ साल के समय चक्र में संगीत के सफ़र को देखा है। बीतते ज़माने के किस्से जो लोग कहते-सुनते हैं, कहानियों को जिया है।
संगीत की महफ़िल दरबार से उठकर मंच की मजलिस हो गई...लेकिन उस्ताद साहब गुज़रे ज़माने को याद करते हैं, दरबारी समय का एक किस्सा बताते हैं...उस समय सुनने वाले ऐसे चीदा चुनिंदा जो कान रखते थे...। गायक ने ज़रा गलती की और पकड़ लिए गए। और आजकल तो मंच पर गाइए, चाहे जो गाइए, और चले जाइए. कोई कुछ नहीं कहेगा...बस खत्म।
वो कहानियां हमारी कान-सुनी भी नहीं हैं, वो आंखों-देखी बयां करते हैं। एक और किस्सा वो याद करते हैं—ग्वालियर के एक राजा थे—ऐसे सुरीले कि जिस प्याले में खाएं, वो भी सुरीला होना चाहिए...। जो हुक्का पिएं, वो भी सुर में गुड़गुड़ाए। हम और हमारे पिता जी दरबार में पहुंचे। और पिता जी ने कहा—तुम राजा हो, तुम गाना सुनोगे और वो भी हमारा? तुम क्या गाना सुनोगे, सुनने के लिए कान चाहिए...और कहकर दरबार से मुड़ लिए। सिपाहियों ने पिस्तौलें निकाल लीं...पर राजा चुप रहे। हमारी बड़ी हालत खराब हुई।
हमने रात दुआ मांगते गुजर की पर पिता जी खर्राटे भरते रहे...एकदम बेफ़िक्र। सुबह फिर तैयार हो गए दरबार जाने को...। हमने सोचा, ये बड़ा ग़ज़ब हुआ...कल जो हुआ, वो हुआ और आज जो होगा, वो ना जाने क्या होगा।
दरबार पहुंचे, पिता जी ने झुककर मुस्कराते हुए सलामी दी...। राजा जी ने पूछा, मिजाज़ कैसे हैं...इच्छा हो तो कुछ सुनाइए। उन्होंने कहा, जैसा आपका हुक्म। और जो गाना शुरू किया तो क्या दरो-दीवार, क्या राजा और क्या सैनिक, जिन्होंने कल पिस्तौलें निकाली थीं, सबके सब रो दिए। राजा ने सैनिकों से पूछा—क्या किया जाए, इन्हें मार दिया जाए। सबने कान पकड़ लिए। राशिद खान संगीत की दुनिया की एक थाती हैं...उनके काम को, अंदाज़ को, गायकी के अनूठेपन को संजोना बहुत ज़रूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को सरगम की विरासत सौंपी जा सके।
ये बात उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ और आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी, कोलकाता ने शिद्दत से महसूस की। यही वज़ह है कि इन दोनों संस्थाओं ने राशिद जी की 1500 से ज्यादा बंदिशें रिकॉर्ड भी कीं।
इस मुल्क में एक ताजमहल है, मोहब्बत का ताजमहल और संगीत की इस दुनिया में सुरों के ताजमहल हैं उस्ताद अब्दुल राशिद, जो ध्रुपद भी गाते हैं...धमाल भी गाते हैं...खयाल भी गाते हैं और चैती और ठुमरी भी गाते हैं—और जब पूछा जाए कि उन्हें विशेषतः क्या पसंद है...तो कहते हैं—स्वर ऐसा लगे, दिल को छू जाए। सुनने वाली की रूह में बैठ जाए। बस वही सारी गायकी है, उसके मुकाबिल चाहे हज़ार तानें मार लें, ध्रुपद गा लें, या ठुमरी। जिस का लगाया स्वर दिल में, दिमाग में बैठ जाए, बस उसी का बेड़ा पार है।
उस्ताद अब्दुल राशिद सुरों का दरिया हैं। ये सिद्ध प्राप्त लोगों में से हैं, जो चाहें तो हंसा दें, चाहें तो रुला दें। ढेरों झरनों सा उफान भी है उनके सुरों में और नदी की मखमली मद्धम कल-कल का जादू भी। बीबीसी और इराक रेडियो ने अंतररष्ट्रीय स्तर पर इन्हें रिकॉर्ड किया।
राशिद साहब कहते हैं—हम दुनियाबी सम्मानों के कायल नहीं...असली सम्मान तो वो है कि ऊपरवाला सामने दिख जाए। साहब जैसे खूबसूरत और हुनरमंद इंसान को ईनाम-इकराम की ख्वाहिश नहीं होती, लेकिन कई संस्थाएं इन पर सम्मान पुरस्कार खूब लुटाती रही हैं। उप्र संगीत नाटक अकादमी ने 1981 में सम्मानित किया, बीएचयू ने 93 में। संगीत महर्षि. संगीत सरताज, रससागर और बंदिश सम्राट जैसी उपाधियां भी उस्ताद को मिल चुकी हैं।
(दैनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित)

28 comments:

बाल भवन जबलपुर said...

वाह
आपकी कमयाब कोशिश के लिये आभारी हूं

anooplather@gmail.com said...

nidhi ji i must than chandi bhai,for recomending this writeup.thanks nidhi ji for introducing us to such an heritage personality and the words and language you have put in is in itself raseelee.

अविनाश वाचस्पति said...

बेहतरीन जानकारी।

Unknown said...

यूँ नहीं लगा निधि ने लिखा है ,ऐसा लगा जैसे राशिद खान साहब के साथ साथ कोई एक १०३ साल तक चलता रहा और फिर एक दिन कुछ एक सौ शब्दों में उनकी पूरी जिंदगी के फलसफे को बयां कर दिया |

Alpana Verma said...

bahut hi nayab jaankari di aap ne.
103 varshiy ustaad sahab ke bare jo bhi padha ,ab unhen sunNe ki ichchha ho rahi hai..dekhti hun agar net par kahin unki bandishen sun sakun.

bahut bahut abhaar Nidhi.

Alpana Verma said...

wikipedia ke anusaar -Ustad Abdul Rashid Khan (born November 1908)--aap ne 1901 likha hai..

Alpana Verma said...

ek sujhaav hai---is matter ko wikipedia par bhi daal den..hindi mein inke bare mein khain jaankari nahin hai.
aur ye link--matter mein lagaa dengi--to readers unhen sun sakenge--http://www.youtube.com/watch?v=bqt1kE8H2mQ

डॉ .अनुराग said...

ऐसे लोग अब खुदा ने बनाने छोड़ दिए है .....शायद ओवर लोड है.......

संजय भास्‍कर said...

bahut bahut abhaar Nidhi JI

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहतरीन जानकारी है...

Word Verification से कमेंट्स करने वालों को असुविधा होती है...

Rector Kathuria said...

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है....आप के आलेख और तस्वीरों का चयन भी सुंदर है और प्रस्तुतिकरण भी...!

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है....आप के आलेख और तस्वीरों का चयन भी सुंदर है और प्रस्तुतिकरण भी...

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

welcome to blog world.
nice information

Anonymous said...

—हम दुनियाबी सम्मानों के कायल नहीं...असली सम्मान तो वो है कि ऊपरवाला सामने दिख जाए।
wah!

Anonymous said...

अब्दुल राशिद खां साहब के बारे में इतने सुंदर लफ्जों में बहुमूल्य जानकारी - धारा प्रवाह. धन्यवाद्

saurabh said...

bahumlya jankari dene ke liye kotishah dhanywad......bahut bahut badhai ho itne sunder lafzo ke sath unki jeevan yatra sunane ke liye..

Sanjeet Tripathi said...

pura padha, shayad rasrang me bhi padha tha,
ek sawal dimag me aa raha hai, ek jagah likha hai
103 वर्षीय मंच पर बैठ कर कहते हैं,.....

vahi aage likha hai....
मियां तानसेन के दूसरे बेटे सुरत सेन के 23वीं पीढ़ी के वशंज उस्ताद अब्दुल राशिद खां साहब 1901 में जन्मे हैं।

ya to aapko blog me ye dalte samay ullekhit karna chahiye tha ki ye interview kab liya gaya tha..ya fir taza halat sath me update ke sath dena tha...
m sorry agar maine kuchh galat kaha ho to

RAJNISH PARIHAR said...

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है....आप के आलेख का प्रस्तुतिकरण भी सुंदर है !! धन्यवाद्

alka mishra said...

बुजुर्गवार को हमारा सलाम जो अभी तक साधना में रत हैं ,१०९ साल की साधना मामूली कैसे हो सकती है ,सचमुच हमारा देश ज्ञान की खान है
जानकारी के लिए आपको भी धन्यवाद ..

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

kya baat.....kyaa baat.....kyaa baat !!

RAJ SINH said...

अरे आप तो बहुत वक्त से लिख रही हैं. तो नए चिट्ठों में अब नाम आया ?

आपके दोनों ब्लोगों का सब पढ़ा. तत्व और भाषा तथा विषयवस्तु सभी प्रभावित करते हैं .

फिर भी नया समझ कर { :) } आपका स्वागत है !

हाँ वर्ड वेरिफिकेसन हटा दें. टिप्पणीकारों को तकलीफ होगी और इसका फायदा कुछ नहीं है .

saket said...

अविस्मरणीय। आपका ब्लॉग विषय वस्तु, शानदार प्रस्तुति, एवं तथ्यों का खूबसूरत संयोजन है। हिन्दी जगत में आप जैसे ब्लॉगरों की सख्त जरुरत है। मैं भी ऐसा ब्लॉग लिखना चाहता हूँ। आपसे सलाह लेना चाह्ता हूँ। कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें तथा अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ दर्ज करें।

भवदीय,

साकेत सहाय
राजभाषा अधिकारी
संपर्क 9609674973
ई-मेल hindisewi@gmail.com
www.vishwakeanganmehindi.blogspot.com

rashmi ravija said...

बहुत ही उम्दा प्रस्तुति, रशीद खान साहब के बारे में इतना कुछ जानकर बहुत अच्छा लगा,और आश्चर्य भी हुआ..अभी तक इतने सक्रिय हैं वो...
निश्चय ही एक कर्मयोगी और सबके लिए प्रेरणास्त्रोत

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

manish badkas said...

तरह तरह के गीत हैं तरह तरह के राग,
बस उतना ही संगीत है जितनी तुझमे आग..

अपूर्व said...

सहेज कर रखने लायक लेख..एक ऐसे संगीत के दरिया के बारे मे जिसने सौ सालों से वक्त की रगों मे सुरो की मिठास घोलने का काम जारी रखा है..हम क्या करें कि अपनी इस विरासत को सहेज पायें आने वाली नस्लों के लिये..
इतने ज्ञानवर्धक लेख के लिये आभार

रौशन जसवाल विक्षिप्त said...

nice post

Chaaryaar said...

achchha likha hai.

संदीप said...

किसी मित्र के मार्फत राशिद साहब का नाम सुना था, फिर यूट्यूब पर उनका वीडियो देखा..वाकई यकीन नहीं हुआ कि यह आवाज़ १०३ साल के व्‍यक्ति की है...