Thursday, March 25, 2010

रूह से निकलता सच्चा सुर


--फहीमुद्दीन डागर



जयपुर दूरदर्शन के लिए मैंने शास्त्रीय संगीत से जुड़े कलाकारों पर आधारित धारावाहिक राग रेगिस्तानी का निर्माण, लेखन और निर्देशन किया। इसी धारावाहिक के निर्माण के सिलसिले में डागर साहब के घर, उनके साथ कई रोज बिताए। फ़िल्म बननी अभी बाकी है पर जेहन में कुछ तस्वीरें और बनीं हैं, जिन्हें यहां शब्दों के रंगों में ढालकर पेश कर रही हूं।


बाबा साहब ने आवाज़ दी...फिमा.... फ़ौरन आओ, बेहद जरूरी बात बतानी है। फिमा दौड़े आए, लेकिन बाबा....बुड्ढे हो चुके थे। जब तक फिमा पहुंचते, उनकी आंख लग गई, शाम भी ढल गई, गाढ़ा अंधेरा घिर आया। फिमा की नई-नई दुल्हन बुलाने आई—बाबा साहब तो सो चुके, सुबह बात कीजिएगा, लेकिन फिमा सिरहाने से हिले नहीं। बिना सुने कैसे जाएं! आधी रात गए बाबा की आंख खुली तो फिमा को नज़दीक बैठा देख चौंके। फिमा बोले, `आप कोई जरूरी बात बता रहे थे बाबा, कहिए! अब्बा बोले—बेटा, रात का तीन बज रहा है। अब तो हमें खुद याद नहीं, जाओ, सो जाओ! फिमा सीढ़ियां चढ़ कमरे की देहरी तक पहुंचे ही थे कि नीचे से फिर आवाज़ आई—अरे बेटा, जल्दी आओ, याद आ गया ,तानपुरा लेते आना। फिमा तानपुरा उठाए दौड़ पड़े। फिर जो तानपुरा छिड़ा, तो सुबह के दस बजे तक तरंग ही में रहा। ये एक दिन की बात नहीं...35 बरस तक ऐसे ही बहती रही है सुरों की नदिया...और उनमें भीगते रहे हैं फिमा।
बरसों लंबी कठिन साधना में शामिल ये किरदार हैं फिमा—फहीमुद्दीन डागर। ऐसे दिन-रात मिट के इन्होंने ध्रुपद की जो दौलत पाई है, वो सुर इस कदर सच्चे हैं कि सुनने वालों के दिल-ओ-दिमाग में ही नहीं ढलते, बल्कि उससे कहीं आगे, कहीं पार निकल जाते हैं। नहीं, फहीमुद्दीन डागर की कही बात, वो बात नहीं, जिसे जबान कहती है और कान सुनते हैं , ये तो वो आवाज़ है—जो रूह से निकलती है , जिसे रूह सुना करती है।
उनकी आवाज़ के रेशम से यूं मेरे दिल के तार, आज नहीं, बहुत बरस बीते जुड़ गए थे। कोई 20 बरस पहले उनके एक कार्यक्रम में हम कई बच्चे ज़मीन पर अगली पांत में बैठे थे।
गाते-गाते बीच में उनके खुशमिजाज़ चेहरे ने मुस्कराती आवाज़ में पूछा—'जानते हो बेटा....क्या होता है?’, फिर कुछ बताया और कहा—'समझे बेटा ?' तब समझी तो नहीं कि वो क्या बता रहे थे, लेकिन मुझ पर उस प्यार को ढालती आवाज़ का जादू असर कर गया।
ऐसे ही एक बात फिमा साहब अपने बचपन के बारे में कहते हैं, `हम तो बस सुनते रहते थे और बाबा, यानी वालिद अल्लाबंदे रहीमुद्दीन खान डागर कहते थे—बेटा! हम जानते हैं, हम जो भी कह रहे हैं, तुम्हारे सर के ऊपर से जा रहा है, लेकिन ये असर कर रहा है और वक्त आने पर अपने-आप उजागर हो जाएगा।‘
एक देहरी है जयपुर के आंगन में, बाबा बहराम खान की चौखट कही जाती है। 1927 में अलवर में जन्मे फिमा इसी देहरी से उठते सुरों की खुशबू दुनिया भर में ले जा रहे हैं। इसी देहरी पर पांच पीढ़ी पहले उनके पुरखे बाबा बहराम खान बैठते थे। कितने ही दिन, महीने, साल और दशक गुजरते रहे हैं...ध्रुपद गायकों की ये लड़ी शुरू हुई और इस कदर छाई कि आज दुनिया भर में ध्रुपद के मायने डागर और डागर के मायने ध्रुपद हो गया है। हां, कुछ लोग कहते हैं कि इनके यहां सबकी आवाज़ें एक सी हैं, तो बाबा साहब मुस्कुराकर कहते हैं, `हां, क्यूंकि वो एक सी बनाई जा रही हैं। ध्रुपद एक किरदार है, पवित्रतम रूप! ये चरित्र हमारे यहां तो नहीं बदलेगा।‘
और उनकी आवाज़ का बयां क्या करू...जबां ऐसी हलकी कि उस पर शब्द खनकते से लगते हैं...उनका संगीत इस दुनिया से पार ले जाता है। सुनते हुए लगता है—हम फूल से सागर की सतह पे तैर रहे हों। और वो कहते भी हैं—संगीत `सा रे गा मा’ नहीं है, ईश्वरीय नाद है। ईश्वर की जात निराकार और ये राग निराकार। जो दिखता नहीं और दिखे तो फिर ज़र्रे ज़र्रे में दिख रहा है। संगीत शांति का सिलसिला है। ये सेक्रीफाइस की चीज है।
उनसे ज़िक्र किया..ध्रुपद से डर जाने वाले आम श्रोताओं का, तो कहने लगे—सुनने वालों का क्या कसूर? भयानकता खत्म रखने की ताकत रखने वाले संगीत को आज खुद ही भयानक बना दिया गया है। मुंह ऊंचा करके गाने से सुर ऊंचा नहीं होता, ये नुमाइश की चीज नहीं है, चरित्र की बात है, ज्ञान की मंजिल है, जिससे सौम्यता आती है, भद्रता आती है। आज गाने वालों ने अशुद्ध मुद्रा, अशुद्ध बानी से इसे भयानक बना दिया है। ये गायक खुद संगीत और श्रोता के बीच अड़चन हैं। आप इसे अपने मिजाज़ से क्यों पेश कर रहे हैं। आप सुनाइए उस तरह ध्रुपद, जो इसका पैमाना है, फिर देखिए। कला पहले कलाकार के लिए है। पहले कलाकार अपने अंदर असर पैदा करें, तभी तो वो असर लोगों पर होगा।
वो कहते हैं—संगीत है—रागात्मक ,स्वरात्मक, शब्दात्मक, वर्णात्मक, तालात्मक, लयात्मक, सरस आत्मक। डागर साहब गंगा की बात करते हैं, ईश्वर की बात करते हैं और दुखी हो जाते हैं कि ज़माने ने इंसान को इंसान नहीं रहने दिया। जाने क्या-क्या बना दिया! वो कहते हैं—आप ये क्यों देखते हैं कि कौन कह रहा है? ये क्यों नहीं देखते कि क्या कह रहा है? इकबाल और तुलसी एक ही तो बात करते हैं—
ये विवाद इंसानों के हैं, धर्म तो सादगी देता है।
रहीम फहीमुद्दीन डागर को पद्म भूषण मिला, लाइफ टाइम अचीवमेंट से नवाज़ा गया, लेकिन ईनाम-इकराम एक तरफ, इतने सादे हैं साहब कि कुरते के बटनों में उलझ जाते हैं। उनकी साथिन कहती हैं, फहीम जी मुश्किल से मुश्किल राग लगा लेते हैं, लेकिन बटन लगाना इनके लिए बड़ा काम है।
यूं, मैं उनका बयान क्या करूं, सूरज का बयां कौन करे ? मैं तो नज़र में भरने गई थी, इस रोशनी से दिल और आत्मा भर के लौटी हूं। ये खामोशी को ढालती आवाज़ है, सुन के लगता है—सागर किनारे बैठे हैं, रोशनी छुई है, हवा से होके गुजरे हैं।
(दैनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित)

7 comments:

rashmi ravija said...

बहुत ही नेक कार्य कर रही हैं आप...हमें भी इतने बड़े संगीत के सच्चे साधकों से मिलने का अवसर मिल रहा है. और यह पंक्ति तो उनके व्यक्तित्व को बिलकुल ही परिलक्षित कर रही है..
"फहीमुद्दीन डागर की कही बात, वो बात नहीं, जिसे जबान कहती है और कान सुनते हैं , ये तो वो आवाज़ है—जो रूह से निकलती है , जिसे रूह सुना करती है।"
बहुत बहुत शुक्रिया निधि

rashmi ravija said...

plss remove the word verification...it discourages ppl to commnet on ur post....jst a waste of time

राजू मिश्र said...

निधि जी आपकी की कलम से निसंदेह नगीना निकला है,सागर ने सच ही बताया था। आपको लिखने के लिए और सागर को इतनी सुंदर सामग्री पढ़वाने के लिए धन्‍यवाद और बधाई। जोश बनाये रखिये।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

अपनी क़लम को शहद में डुबो कर यह आलेख लिखा है आपने. तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास. इतना ही कि शाबास!

मुन्ना कुमार पाण्डेय said...

सही फ़रमाया आपने मोहतरमा ..(वैसे अब इस मोड़ से हम भी गुजर लिए अब )कैसे मिजाज़ हैं कहाँ हैं ?

आशीष कुमार 'अंशु' said...

बहुत ही सुन्दर लिखा है ....

"अर्श" said...

थोड़ी देर पहले ही चंडी जी से बात हो रही थी मेरी ,और फिर उसमे आपका जिक्र आया ... मैंने उनसे कहा के ये जो लिंक आपने अपने मैसेज बॉक्स में लगा रखा है खुल नहीं रही .. तुरंत उन्होंने मुझे मेल किया ये दोनों ही पोस्ट उसके लिए उनका आभार , मगर मैं पढ़ते हुए बरबस यही सोच रहा था के इन लेखों में वो बात है के किरदारों में जो वाजिब है ... मगर यहाँ तो बात दोनों में है ... क्या खूबसूरती से आपने लेख लिखे हैं वाह क्या अंदाज़ है ... ऐसे लगा जैसे के एक मखमली चादर बिछाई हो आपने , मूलतः मैं लम्बी रचनाएँ नहीं पढता ब्लोग्स पर , लेकिन इसे पढ़ते हुए ज़रा भी ये नहीं लगा के ये लम्बी रचना है ... बेहद खूबसूरती से अपनी बात को आपने रखा है..
बधाई आपको ... और अल्लाह मियाँ से दुआ के खूब लिखते रहें...

अर्श