Tuesday, November 4, 2008

जाओ रंग


रहने दो रंग
मैं तो जानती हूँ
दरअसल सब कुछ
श्वेत- श्याम ही है
दरअसल सब कुछ श्वेत - श्याम ही रहना है
इन आकृतियों को तुम
नीला रंगों या भूरा
दरअसल हम सब
सफ़ेद कागज़ पर
काले पेन के स्केत्च ही हैं
जाओ रंग
काली लकीरों के भीतर हम सब को
कोरा ही रहना है
रहने दो रंग
मैं तो जानती हूँ
रंग भरना
रंगहीन होना

और सोचो तो

ये काला रंग भी तो

मिथ्या ही है

तो क्या आखिरी पेंटिंग है

खाली कैनवास

शीर्षक "हम"

9 comments:

संदीप said...
This comment has been removed by the author.
संदीप said...

मैं जानता हूं रंग
कि
मैं कितना भी चाहूं
तुमसे बच नहीं सकता!
श्‍वेत-श्‍याम बने रहने की
ख्‍वाहिश
जिंदगी के रंगों से
दूर रहने की ख्‍वाहिश जो ठहरी,
और जिंदगी रंगहीन
हो सकती है भला!!


इस कविता को पढ़ते हुए जो दिमाग में आया, टाइप कर दिया, उम्‍मीद है अन्‍यथा नहीं लेंगे...

जितेन्द़ भगत said...

रंग के साथ सुंदर संवाद।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

अच्छा िलखा है आपने । भाव बहुत संुदर है ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत सुन्दर.

अभिषेक मिश्र said...

Aapke profile ne kafi prabhavit kiya. Acha likhti hain aap. swagat mere blog par bhi.
(Pls remove unnecessary word verification).

sandhyagupta said...

Bahut achcha likha hai aapne. Badhai.

सुशील छौक्कर said...

श्‍वेत-श्‍याम से बना यह शब्दों का कैनवास बहुत सुन्दर लग रहा है।

सुशील छौक्कर said...

श्‍वेत-श्‍याम रंगो से बना यह शब्दों का कैनवास बहुत सुन्दर लग रहा है।